Book Title: Pramey Kamal Marttandsara
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 320
________________ 284 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 6/66-67 फलाभासं प्रमाणादभिन्न भिन्नमेव वा।।66॥ कुतोस्य फलाभासतेत्याहअभेदे तद्व्यवहारानुपपत्तेः ॥67॥ न खलु सर्वथा तयोरभेदे 'इदं प्रमाणमिदं फलम्' इति व्यवहारः शक्यः प्रवर्त्तयितुम्। ननु व्यावृत्त्या तयोः कल्पना भविष्यतीत्याह परिवर्तन के हुए बिना ऐसा कह नहीं सकते कि पहले कार्य को नहीं किया था पर सहायक कारण मिलने पर कार्य किया इत्यादि। इस प्रकार सर्वथा पृथक्-पृथक् सामान्य और विशेष की मान्यता कथमपि सिद्ध नहीं होती है। फलाभास अब यहाँ फलाभास का वर्णन करते हैंफलाभासं प्रमाणादभिन्न भिन्नमेव वा ।।66॥ सूत्रार्थ-प्रमाण से प्रमाण का फल सर्वथा भिन्न ही है अथवा सर्वथा अभिन्न ही है ऐसा मानना फलाभास है। इसे फलाभास किस कारण से कहते हैं, वह बताते हैं अभेदे तद्व्यवहारानुपपत्तेः ॥67॥ सूत्रार्थ- यदि प्रमाण से प्रमाण का फल सर्वथा अभिन्न ही है ऐसा स्वीकार किया जाय तो यह प्रमाण है और यह इसका फल है ऐसा व्यवहार बन नहीं सकता। क्योंकि अभेद में इस तरह का कथन होना अशक्य है। यहाँ कोई बौद्ध अनुयायी शिष्य प्रश्न करता है कि प्रमाण और फल में अभेद होने पर भी व्यावृत्ति द्वारा यह प्रमाण का फल है ऐसा व्यवहार हो जाता है। इसमें क्या दोष है?

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