Book Title: Pramey Kamal Marttandsara
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 332
________________ 6/73 296 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः तथानुषज्यते; जल्पस्यैव वितण्डारूपत्वात्, “स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा।"23 इत्यभिधानात्। 70. नापि वितण्डा तथानुषज्यते; जल्पस्यैव वितण्डारूपत्वात्, "स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा।"24 इति वचनात्। स यथोक्तो जल्पः प्रतिपक्षस्थापनाहीनतया विशेषितो वितण्डात्वं प्रतिपद्यते। वैतण्डिकस्य च स्वपक्ष एव साधनवादिपक्षापेक्षया प्रतिपक्षो हस्तिप्रतिहस्तिन्यायेन। तस्मिन्प्रतिपक्षे वैतण्डिको हि न साधनं वक्ति। केवलं परपक्षनिराकरणायैव प्रवर्त्तते इति व्याख्यानात्। वाद होता है ऐसा वाद का विशेषण दिया है, जल्प में यह विशेषण आगे होने पर भी आगे सिद्धान्त अविरूद्ध आदि विशेषण नहीं पाये जाते, जल्प का लक्षण तो इतना ही है कि- “यथोक्तोपपन्नछलजाति निग्रहस्थान साधनोपालंभो जल्पः” अर्थात् प्रमाण तर्क आदि से युक्त एवं छल जाति निग्रहस्थान साधन उपालंभ से युक्त ऐसा जल्प होता है, अत: वाद का लक्षण जल्प में नहीं जाता और इसी वजह से हेतु व्यभिचरित नहीं होता। 70. वितंडा भी तत्त्वाध्यवसाय संरक्षण नहीं करता, क्योंकि वितण्डा जल्प के समान ही है "सप्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितंडा" जल्प के लक्षण में प्रतिपक्ष की स्थापना से रहित लक्षण कर दें तो वितंडा का स्वरूप बन जाता है। जिसमें प्रतिपक्ष की स्थापना नहीं हो ऐसा जल्प ही वितंडापने को प्राप्त होता है। वितंडा को करने वाला वैतंडिक का जो स्वपक्ष है वही प्रतिवादी की अपेक्षा प्रतिपक्ष बन जाता है, जैसे कि हाथी ही अन्य हाथी की अपेक्षा प्रति हाथी कहा जाता है। इस प्रकार वैतंडिक जो सामने वाले पुरुष ने पक्ष रखा है उसमें दूषण मात्र देता है किंतु अपना पक्ष रखकर उसकी सिद्धि के लिए कुछ हेतु प्रस्तुत नहीं करता, केवल पर पक्ष का निराकरण करने में ही लगा रहता है। 23. न्यायसूत्र 1/2/2 न्यायसूत्र 1/2/3

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