Book Title: Pramey Kamal Marttandsara
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 327
________________ 6/73 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 291 64. ननु चतुरङ्गवादमुररीकृत्येत्याद्ययुक्तमुक्तम्: वादस्याविजिगीषुविषयत्वेन चतुरङ्गत्वासम्भवात्। न खलु वादो विजिगीषतोर्वर्त्तते तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थरहितत्वात्। यस्तु विजिगीषतो सौ तथा सिद्धः यथा जल्पो वितण्डा च, तथा च वादः, तस्मान्न विजिगीषतोरिति। न हि वादस्तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थी भवति; जल्पवितण्डयोरेव तत्त्वात्। तदुक्तम् से उस प्रमाण को सदोष बताता है। ऐसे अवसर पर भी वादी यदि उस दोष का परिहार करने में असमर्थ हो जाता है तो भी वादी का पराजय होना संभव है। इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि अपने पक्ष के ऊपर, प्रमाण के ऊपर प्रतिवादी द्वारा दिये गये दोषों का निराकरण कर सकना ही विजय का हेतु है। जैन के द्वारा वाद का लक्षण सुनकर यौग अपना मत उपस्थित करते हैं 64. योग- वाद के चार अंग होते हैं इत्यादि जो अभी जैन ने कहा वह अयुक्त है। वाद में जीतने की इच्छा नहीं होने के कारण सभ्य आदि चार अंगों की वहाँ संभावना नहीं है। विजय पाने की इच्छा है जिन्हें ऐसे वादी प्रतिवादियों के बीच में वाद नहीं चलता, क्योंकि वाद तत्त्वाध्यवसाय का संरक्षण नहीं करता, जो विजिगीषुओं के बीच में होता है वह ऐसा नहीं होता, जैसे जल्प और वितंडा में तत्त्वाध्यवसाय संरक्षण होने से वे विजिगीषु पुरुषों में चलते हैं, वाद ऐसा तत्त्वाध्यवसाय का संरक्षण तो करता नहीं अतः विजिगीषु पुरुषों के बीच में नहीं होता। इस प्रकार पंचावयवी अनुमान द्वारा यह सिद्ध हुआ कि वाद के चार अंग नहीं होते और न उसको विजिगीषु पुरुष करते हैं। यहाँ कोई कहे कि वाद भी तत्त्वाध्यवसाय के संरक्षण के लिये होता है ऐसा माना जाय? सो यह कथन ठीक नहीं। जल्प और वितंडा से ही तत्त्व संरक्षण हो सकता है, अन्य से नहीं। कहा भी है- जैसे बीज और अंकुरों की सुरक्षा के लिये काटों की बाड़ लगायी जाती है, वैसे तत्त्वाध्यवसाय के संरक्षण हेतु जल्प और वितंडा किये जाते हैं।

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