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प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार:
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11. किञ्च, अनुगतप्रत्ययस्य सामान्यमन्तरेणैव देशादिनियमेनोत्पत्तौ व्यावृत्तप्रत्ययस्यापि विशेषमन्तरेणैवोत्पत्तिः स्यात् । शक्यं हि वक्तुम् - अभेदाविशेषेप्येकमेव ब्रह्मादिरूपं प्रतिनियताने कनीलाद्याभासनिबन्धनं भविष्यतीति किमपररूपादिस्वलक्षणपरिकल्पनया । ततो रूपादिप्रतिभासस्येवानुगतप्रतिभासस्याप्यालम्बनं वस्तुभूतं परिकल्पनीयम् इत्यस्ति वस्तुभूतं सामान्यम् ।
क्षणभंगवादविमर्शः
परापरविवर्त्तव्यापिद्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु ॥6॥
प्रतिभास यह गो है, यह गो है- इत्यादि अनुगताकार है, और विशेष का प्रतिभास यह इससे भिन्न है, यह श्याम वर्ण गो है, शवल नहीं हैइत्यादि व्यावृत्ताकार अनुभव में आता है।
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11. किञ्च यदि सामान्य के बिना ही देशादि नियत रूप से अनुगत प्रत्यय का प्रादुर्भाव होता है तो विशेष के बिना ही व्यावृत्त प्रत्यय का प्रादुर्भाव होता है ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा। कह सकते हैं कि सम्पूर्ण पदार्थों में अभेद का अविशेषपना (अद्वैत) होने पर भी एक परम ब्रह्मादि के निमित्त से ही प्रतिनियत भिन्न भिन्न नील, पीत आदि अनेक तरह के प्रतिभास होते हैं अतः पृथक् पृथक् द्वैतरूप नील, पीत इत्यादि रूप स्वलक्षण भूत विशेष विशेष वस्तुओं की कल्पना करना व्यर्थ ही है? इस आपत्ति को दूर करने के लिये रूपादि के प्रतिभासों का कारण जैसे विभिन्न विशेष धर्म हुआ करते हैं और वे व्यावृत्त प्रत्यय के कारण हैं ऐसा आप मानते हैं वैसे ही सदृश प्रतिभासों का कारण सामान्य धर्म है और यही अनुगताकार प्रत्यय [गौ है गौ है] का कारण है ऐसा मानना चाहिये। इस प्रकार वस्तुभूत सामान्य की सिद्धि होती है । क्षणभंगवाद विमर्श
सामान्य का दूसरा भेद उर्ध्वता सामान्य है अब उसका लक्षण क्या है ऐसा प्रश्न होने पर सूत्र द्वारा उसका अबाधित लक्षण प्रस्तुत करते हैंपरापरविवर्तव्यापिद्रव्यमूर्च्छता मृदिव स्वासादिषु ॥16॥