Book Title: Pramey Kamal Marttandsara
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 311
________________ 6/55 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 275 अथेदानी संख्याभासोपदर्शनार्थमाहप्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादि संख्याभासम् ॥5॥ कस्मादित्याहज्ञान में पाया जाता है अतः ऐसे वचन से उत्पन्न हुआ ज्ञान आगमाभासरूप सिद्ध होता है। यहां समझाने योग्य बात यह है कि- आगम प्रमाण का लक्षण "आप्त पुरुष सर्वज्ञ वीतरागी पुरुषों के वचन के निमित्त से अर्थात् उनके वचनों को सुनकर या पढ़कर जो पदार्थ का वास्तविक ज्ञान होता है उनको आगमप्रमाण कहते हैं- ऐसा तीसरे परिच्छेद में कहा था। यहां इतना समझना है कि उस लक्षण से विपरीत लक्षण वाला जो ज्ञान है वह सब आगमाभास है, जो आप्त पुरुष नहीं है राग द्वेष अथवा मोहयुक्त है उसके वचन प्रामाणिक नहीं होते हैं अतः उन वचनों को सुनकर होने वाला ज्ञान भी प्रामाणिक नहीं होता, रागी पुरुष मनोरंजनादि के लिये जो वचन बोलता, है उससे जो ज्ञान होता है वह आगमाभास है तथा द्वेषी पुरुष द्वेषवश जो कुछ कहता है उससे जो ज्ञान होता है वह आगमाभास है, मोह का अर्थ मिथ्यात्व है, मिथ्यात्व के उदय से आक्रान्त पुरुष के वचन तो सर्वथा विपरीत ज्ञान के कारण होने से आगमाभास ही हैं, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, बौद्ध, चार्वाक, मीमांसक आदि जितने भी मत हैं उन मतों के जो वचन अर्थात् ग्रन्थ हैं वे सभी विपरीत ज्ञान के कारण होने से आगमाभास कहे जाते हैं। संख्याभास अब प्रमाण की संख्या सम्बन्धी जो विपरीतता है अर्थात् प्रमाण की संख्या कम या अधिक रूप से मानना संख्याभास है ऐसा कहते हैं प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादि संख्याभासम् ॥55॥ सूत्रार्थ- प्रत्यक्षरूप एक ही प्रमाण है, इत्यादि रूप मानना संख्याभास है।

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