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6/5 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
227 पुनर्नेहाभिधीयते। तथा अब यहाँ पुनः नहीं कहते।
अब इस प्रकरण को सार रूप में देखने पर हम पाते हैं कि ज्ञान को अस्वसंविदित मानने वाले बहुत से दार्शनिक हैं, नैयायिक ज्ञान को अस्वसंविदित मानते हैं, इनका कहना है कि ज्ञान परपदार्थों को जानता है किंतु स्वयं को नहीं, स्वयं को जानने के लिये तो अन्य ज्ञान चाहिये, इसीलिये नैयायिक को ज्ञानान्तर वैद्यज्ञानवादी कहते हैं, इस मत का प्रथम भाग में भलीभाँति खण्डन किया है और यह सिद्ध किया है कि ज्ञान स्व और पर दोनों को जानता है।
मीमांसक के दो भेद है- भाट्ट और प्रभाकर, इनमें से भाट्ट ज्ञान को सर्वथा परोक्ष मानता है, नैयायिक तो अन्य ज्ञान द्वारा ज्ञान का प्रत्यक्ष होना तो बताते हैं किन्तु भाट्ट एक कदम आगे बढ़ते हैं ये तो कहते हैं कि ज्ञान अन्य अन्य सभी वस्तुओं को जान सकता है किन्तु स्वयं हमेशा परोक्ष ही रहेगा, इसीलिये इन्हें परोक्षज्ञानवादी कहते हैं, यह मत भी नैयायिक के समान बाधित होने से पहले भाग में खण्डित हो चुका है।
प्रभाकर अपने भाई भाट्ट से एक कदम और भी आगे बढ़ते हैं, ये प्रतिपादन करते हैं कि ज्ञान और आत्मा ये दोनों भी परोक्ष हैं ज्ञान अपने को और अपने अधिकरणभूत आत्मा इनको कभी भी नहीं जान सकता अतः इन्हें आत्मपरोक्षवादी कहते हैं, इन नैयायिक आदि परवादी का यह अभिप्राय है कि प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता और प्रमिति इन प्रमुख चार तत्त्वों में से प्रमाण या ज्ञान प्रमेय को तो जानता है और प्रमिति [जानना] उसका फल होने से उसे भी ज्ञान जान लेता है किन्तु प्रमाण अप्रमेय होने से स्वयं को कैसे जाने? नैयायिक ज्ञान को अन्य ज्ञान द्वारा प्रत्यक्ष होना बताते हैं किन्तु भाट्ट इसे सर्वथा परोक्ष बताते हैं, प्रभाकर प्रमाण करण और आत्मा कर्ता इन दोनों को ही परोक्ष-सर्वथा परोक्ष स्वीकार करते हैं, इनका मत साक्षात् बाधित होता है।
आत्मा और ज्ञान परोक्ष रहेंगे तो स्वयं को जो अनुभव सुख दुख