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प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार:
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यद्वा–' प्रयत्नानन्तरीयकत्वहेतूपादानसामर्थ्यात् ' प्रयत्नानन्तरीयक एव शब्दोत्र पक्षः । तत्र चास्य सर्वत्र प्रवृत्तेः कथं भागासिद्धत्वमिति ?
अथेदानीं द्वितीयमसिद्धप्रकारं व्याचष्टेअविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुद्धिं प्रत्यग्निरत्र धूमादिति ॥25॥
असिद्ध में हेतु तो सिद्ध रहता है किन्तु आश्रय का एक देश ही असिद्ध होता है, और भागासिद्ध में हेतु असिद्ध होता है और पक्ष या आश्रय का एक देश या भाग तो सिद्ध होता है।
पहले के छह भेदों के लिए तो जैनाचार्य ने इतना ही कहा कि ये छहों भेद स्वरूपसिद्ध हेत्वाभास से पृथक् सिद्ध नहीं होते, इनका लक्षण स्वरूपसिद्ध के समान ही है, जब तक लक्षण भेद नहीं होता तब तक वस्तु भेद नहीं माना जाता है।
व्यधिकरणसिद्ध के लिये समझाया है कि यह कोई दूषण नहीं है कि हेतु का अधिकरण साध्य या पक्ष से भिन्न होने से यह हेत्वाभास बन जाता हो अर्थात् साध्य पक्ष का अधिकरण और हेतु का अधिकरण विभिन्न हो सकता है जैसे कृतिकोदय नामा हेतु रोहिणी उदय नामापक्ष के आधार में नहीं रहकर साध्य का गमक ही है, अतः व्यधिकरण सिद्ध नामा कोई हेत्वाभास सिद्ध नहीं होता।
भागासिद्ध नामा हेत्वाभास भी साध्याविनाभावी हो तो अवश्य ही गमक होता है अर्थात् पक्ष के एक भाग में रहे वह भागासिद्ध हेत्वाभास है ऐसा कहना भी अयोग्य है क्योंकि बहुत से इस तरह के हेतु होते हैं कि जो पक्ष के एक भाग में रहकर भी साध्य के साथ अविनाभावी सम्बन्ध होने के कारण सत्य हेतु कहलाते हैं- स्वसाध्य के गमक होते हैं अतः परवादी को ऐसे ऐसे हेत्वाभासों के भेद नहीं मानने चाहिये।
अब असिद्ध हेत्वाभास का दूसरा प्रकार बताते हैंअविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुद्धिं प्रत्यग्निरत्र धूमात् ॥25॥
अर्थ- जिस हेतु का साध्य साधनभाव निश्चित नहीं किया गया ऐसे हेतु का प्रयोग करना सन्दिग्धासिद्ध हेत्वाभास है, अथवा जिस पुरुष