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6/24 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
243 23. न च व्यधिकरणस्यापि गमकत्वे अविद्यमानसत्ताकत्वलक्षणमसिद्धत्वं विरुध्यते; न हि पक्षेऽविद्यमानसत्ताकोऽसिद्धोऽभिप्रेतो गुरूणाम्। कि तर्हि? अविद्यमाना साध्येनासाध्येनोभयेन वाऽविनाभाविनी सत्ता यस्यासावसिद्ध इति।
के भाग में बरसात अवश्य हुई है, क्योंकि यहाँ निचले भाग में नदी में बाढ़ आयी है, यहाँ भी साध्य एवं हेतु का विभिन्न अधिकरण है तो भी इनमें गम्य गमक भाव बराबर पाया जाता है, वह उन दोनों के अविनाभावी संबंध के कारण होता है न कि व्यधिकरण अव्यधिकरण के कारण होता है, अर्थात् जहाँ व्यधिकरण हो वहाँ हेतु साध्य को सिद्ध न करे और जहाँ अव्यधिकरण हो वहाँ वह हेतु साध्य को सिद्ध कर दे ऐसी बात नहीं हैं, साध्य के साथ अविनाभाव होने के बाद तो चाहे वह व्यधिकरण रूप हो चाहे अव्यधिकरणरूप हो।
यदि व्यधिकरण अव्यधिकरण के निमित्त से गम्य गमक मानेंगे तो “स: श्यामस्तत् पुत्रत्वात्" उसका गर्भस्थ पुत्र काला होगा, क्योंकि उसका पुत्र है इत्यादि हेतु भी स्वसाध्य के गमक अर्थात् सिद्धि कारक बन जायेंगे? क्योंकि उनमें व्यधिकरण सिद्धत्व नहीं है तथा यह महल सफेद है, क्योंकि काक में कालापना है, यह हेतु व्यधिकरण होने मात्र से गमन नहीं है ऐसा मानना होगा? किन्तु ऐसी बात नहीं है, ये हेतु तो अविनाभाव संबंध के अभाव होने से ही सदोष है और स्वसाध्य के गमक नहीं हैं।
शंका- व्यधिकरणत्व हेतु को साध्य का गमक माना जाय तो जिसकी सत्ता अविद्यमान है उसे अविद्यमान सत्ता नाम का असिद्ध हेत्वाभास कहते हैं, इस प्रकार असिद्ध हेत्वाभास का लक्षण विरुद्ध होगा?
समाधान- ऐसी बात नहीं है, पक्ष में जिसकी सत्ता अविद्यमान हो वह असिद्ध हेत्वाभास है ऐसा असिद्ध हेत्वाभास का अर्थ करना आचार्य को इष्ट नहीं है, अर्थात् अविद्यमान सत्ताकः परिणामीशब्द