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प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः
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चासम्भवादेव तत्रास्याऽवृत्तिः सिद्धा ।
38. पक्षैकदेशवृत्तिर्विपक्षव्यापकोऽविद्यमानसपक्षो यथा - नित्येवाङ्मनसे कार्यत्वात्। कार्यत्वं हि पक्षस्यैकदेशे वाचि वर्त्तते न मनसि । विपक्षे चानित्ये घटादौ सर्वत्र प्रवर्त्तते सपक्षे चावृत्तिस्तस्याभावात्सुप्रसिद्धा ।
अथानैकान्तिकः कीदृश इत्याह
विपक्षेप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः ॥30॥
39. न केवलं पक्षसपक्षेऽपि तु विपक्षेपीत्यपिशब्दार्थः। एकस्मिन्नन्ते नियतो यैकान्तिकस्तद्विपरीतोऽनैकान्तिकः सव्यभिचार इत्यर्थः । कः पुनरयं
विशेषगुणभूत रूपरसादि विपक्ष एक देश में तो है किन्तु सुखादि विपक्ष में नहीं है अतः विपक्षैक देशवृत्ति कहलाया, सपक्ष का असत्व होने से उसमें रहना निषिद्ध है ही।
38. जो हेतु पक्ष के एक देश में रहता है और विपक्ष में पूर्ण व्यापक रहता है एवं अविद्यमान सपक्ष वाला है वह चौथा विरुद्ध हेत्वाभास है, जैसे वचन और मन नित्य है, क्योंकि ये कार्यरूप है, यह कार्यत्व हेतु पक्ष के एक देशभूत वचन में तो रहता है और मन में नहीं रहता, अनित्य घटादि विपक्ष में सर्वत्र रहता है, सपक्ष के अभाव होने से उसमें रहना असम्भव है ही ।
इस प्रकार जिसका सपक्ष नहीं होता ऐसे विरुद्ध हेत्वाभास के चार भेद और पहले जो सपक्ष वाले चार भेद बताये वे सब मिलकर आठ हुए इनका प्रतिपादन नैयायिकादि परवादी कहते हैं किन्तु ये सबके सब विशेष लक्षण के अभाव में कुछ भी महत्त्व नहीं रखते हैं। अनैकान्तिक हेत्वाभास
अब अनैकान्तिक हेत्वाभास का वर्णन करते हैंविपक्षेप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः ॥30॥
सूत्रार्थ- जो हेतु विपक्ष में भी अविरुद्ध रूप से रहता हो वह अनैकान्तिक हेत्वाभास है।
39. केवल पक्ष सपक्ष में ही नहीं अपितु विपक्ष में भी जो हेतु चला जाय वह अनैकान्तिक [ व्यभिचारी ] कहलाता है ऐसा सूत्रस्थ अपि