Book Title: Pramey Kamal Marttandsara
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 299
________________ 6/39 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 263 कुतोस्याऽकिञ्चित्करत्वमित्याह-किञ्चित्कर्तुमशक्यत्वात्। 49. ननु प्रसिद्धः प्रत्यक्षानुमानागमलोकस्ववचनैश्च बाधित: पक्षाभासः प्रतिपादितः। तद्दोषेणैव चास्य दुष्टत्वात् पृथगकिञ्चित्कराभिधानमनर्थकमित्याशक्य लक्षण एवेत्यादिना प्रतिविधत्ते लक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्नप्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ॥39॥ 50. लक्षणे लक्षणव्युत्पादनशास्त्रे एवासावकिञ्चित्करत्वलक्षणो दोषो विनेयव्युत्पत्त्यर्थं व्युत्पाद्यते, न तु व्युत्पन्नानां प्रयोगकाले। कुत सूत्रार्थ- जैसे किसी ने अनुमान वाक्य का प्रयोग किया कि अग्नि ठंडी होती है, क्योंकि वह द्रव्यरूप है, जिस प्रकार जल द्रव्य होने से ठंडा रहता है। तब साध्य में दिया हुआ यह द्रव्यत्व हेतु कुछ नहीं कर सकता अर्थात् अग्नि को ठंडा सिद्ध नहीं कर सकता, क्योंकि अग्नि तो प्रत्यक्ष से उष्ण सिद्ध है। 49. शंका- प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, लोक और स्ववचन इनमें बाधित जो पक्ष हो वह सब पक्षाभास है ऐसा पहले ही बता चुके हैं, उस पक्ष के दोष के कारण ही यह अकिंचित्कर हेतु हेत्वाभास बना है, अतः इस हेत्वाभास को पृथकप से कहना व्यर्थ है? इसी शंका को ध्यान में रखकर आगे सूत्र को कहते हैंलक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्न-प्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ॥39॥ अर्थ- लक्षण को बतलाने वाले हेतु के लक्षण शास्त्र में ही इस अकिचित्कर हेत्वाभास को गिनाया है, जो व्यक्ति अनुमान के प्रयोग करने में कुशल है व्युत्पन्नमति है वह तो पक्ष के दोष के कारण ही इस हेतु को दुष्ट हुआ मान लेता है। 50. हेतु के लक्षण बतलाने वाले शास्त्र में इस अकिंचित्कर लक्षण वाला दोष बता दिया है, इसका कारण यह है कि शिष्यों को पहले से ही व्युत्पन्न-अनुमान प्रयोग में प्रवीण करना है अतः उनको

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