Book Title: Pramey Kamal Marttandsara
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 297
________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार: 48. सपक्षविपक्षव्यापकः पचैकदेशवृत्तिर्यथा पृथिव्यप्तेजोवाय्वाका शान्यनित्यान्यगन्धवत्त्वात् । अगन्धवत्त्वं हि पृथिवीतोऽन्यत्र पक्षैकदेशे वर्तते न तु पृथिव्याम् सपक्षे चानित्ये गुणे कर्मणि च विपक्षेचात्मादौ नित्ये सर्वत्र वर्तत इति । P 6/35 261 अथेदानीमकिञ्चित्करस्वरूपं सिद्ध इत्यादिना व्याचष्टेसिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिञ्चित्करः ॥35॥ सिद्धे निर्णीते प्रमाणान्तरात्साध्ये प्रत्यक्षादिबाधिते च हेतुर्न किञ्चित्हैं" यह तो पक्ष है इसमें अमूर्त्तत्व हेतु दिशा काल रूप पक्ष के एक देश में तो है और एक देश जो मन है उसमें नहीं है। विपक्ष यहाँ द्रव्य है सो किसी द्रव्यरूप विपक्ष में तो अमूर्त्तत्त्व है और किसी में नहीं, इस तरह पक्ष और विपक्ष के एकदेश में अमूर्त्तत्व हेतु रहा। इस हेतु का सपक्ष गुणादि है उसमें सर्वत्र व्यापक है। अष्टम अनैकान्तिक हेत्वाभास 48. जो हेतु सपक्ष और विपक्ष में व्यापक हो और पक्ष के एकदेश में रहे वह आठवाँ अनैकान्तिक हेत्वाभास है, जैसे- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पदार्थ अनित्य हैं क्योंकि ये अगंधवान है। अगंधवानत्व हेतु पृथ्वी को छोड़कर अन्य जल आदि पदार्थों में तो रहता है किन्तु पृथिवी में नहीं रहता । सपक्ष जो अनित्य गुण और कर्म है उनमें व्यापक है और आत्मा आदि नित्यरूप विपक्ष में भी सर्वत्र व्याप्त है। इस तरह नैयायिकादि के यहाँ हेत्वाभासों का वर्णन है, असिद्ध के आठ भेद विरुद्ध के आठ भेद और अनैकान्तिक आठ भेद ये अपने-अपने असिद्ध आदि में ही लीन हैं क्योंकि इसमें कुछ भी लक्षण भेद नहीं है। अतः इस तरह भेद करना गलत है। अकिञ्चित्कर हेत्वाभास अब यहाँ पर श्री आचार्य माणिक्यनंदी अकिञ्चित्कर हेत्वाभास का स्वरूप बतलाते हैं सिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिञ्चित्करः ॥35॥ सूत्रार्थ - जो प्रमाण प्रसिद्ध साध्य हो अथवा प्रत्यक्षादि प्रमाण से

Loading...

Page Navigation
1 ... 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332