Book Title: Pramey Kamal Marttandsara
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 308
________________ 272 कुत एतदित्याह प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार: 6/50 स्पष्टतया प्रकृतप्रतिपत्तेरयोगात् ॥50॥ 57. स्पष्टतया प्रकृतस्य साध्यस्य प्रतिपत्तेरयोगात् । यो हि यथा गृहीतसङ्केतः स तथैव वाक्यप्रयोगात्प्रकृतमर्थ प्रतिपद्येत नान्यथा लोकवत् । यस्तु सर्वप्रकारेण वाक्यप्रयोगे व्युत्पन्नप्रज्ञः स यथा यथा वाक्यप्रयुज्यते तथा तथा प्रकृतमर्थं प्रतिपद्येत: लोके सर्वभाषाप्रवीणपुरुषवत् । तथा च न तं प्रत्यनन्तरोक्तः कश्चित्प्रयोगाभास इति । स्पष्टतया प्रकृतप्रतिपत्तेरयोगात् ॥50॥ सूत्रार्थ - निगमन को पहले और उपनय को पीछे कहने से स्पष्ट रूप से अनुमान ज्ञान नहीं हो पाता । प्रकृत जो अग्नि आदि साध्य हैं उसका ज्ञान विपरीत क्रम से कहने के कारण नहीं हो सकता, बात यह है कि जिस पुरुष को जिस प्रकार से संकेत बताया है वह पुरुष उसी प्रकार से वाक्य प्रयोग करे तो प्रकृत अर्थ को समझ सकता है अन्यथा नहीं, जैसे लोक व्यवहार में हम देखते हैं कि जिस बालक आदि को जिस पुस्तक आदि वस्तु में जिस शब्द द्वारा प्रयोग करे बताया हो वह बालकादि उसी शब्द द्वारा उस वस्तु को जानता है, अन्यथा नहीं । यह तो अव्युत्पन्न पुरुष की बात है, किन्तु जो पुरुष व्युत्पन्न बुद्धि है सब प्रकार के वाक्यों के प्रयोग करने, समझने में कुशल है, वह तो जिस प्रकार का वाक्य प्रयुक्त करो उसको उसी उसी प्रकार से जल्दी समझ जाता है, जैसे कोई पुरुष संपूर्ण भाषाओं में प्रवीण है तो वह जिस किसी प्रकार से वचन या वाक्य हो तुरन्त उसका अर्थ समझ जाता है। इस तरह यदि अनुमान प्रयोग में जो व्युत्पन्न है उसके लिये कैसा भी अनुमान बताओ वह तुरन्त समझ जाता है, उस व्युत्पन्न मति पुरुष को कोई भी प्रयोग बाल प्रयोगाभास नहीं कहलायेगा। क्योंकि वह हर तरह से समझ सकता है।

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