Book Title: Pramey Kamal Marttandsara
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 277
________________ 6/24 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 241 20. व्यर्थविशेषणासिद्धो यथा-अनित्याः परमाणवः सामान्यवत्त्वे सति कृतकत्वात्। व्यर्थविशेष्यविशेषणश्चासावसिद्धश्चेति। 21. व्यधिकरणासिद्धो यथा-अनित्यः शब्दः पटस्य कृतकत्वात्। व्यधिकरणश्चासावसिद्धश्चेति। ननु शब्दे कृतकत्वमस्ति तत्कथमस्यासिद्धत्वम्? तदयुक्तम्: तस्य हेतुत्वेनाप्रतिपादितत्वात्। न चान्यत्र प्रतिपादितमन्यत्र सामान्यवत्वात् ऐसा जो हेतु का विशेष्य भाग है वह व्यर्थ [बेकार] का है क्योंकि कृतक- किया हुआ इतने विशेषण से ही साध्य सिद्ध हो जाता व्यर्थविशेषणासिद्ध हेत्वाभास 20.जिसका विशेषण व्यर्थ हो वह व्यर्थविशेषणसिद्ध हेत्वाभास है। जैसे- परमाणु अनित्य है, क्योंकि सामान्यवान होकर कृतक है यहाँ कृतकत्वरूप विशेष्य से ही साध्य [अनित्यपना] सिद्ध हो जाता है अतः सामान्यवान् विशेषण व्यर्थ ठहरता है। "व्यर्थ है विशेष्य और विशेषण जिसके" ऐसा व्यर्थ विशेष्यासिद्धादि पदों का समास है। व्यधिकरणासिद्ध हेत्वाभास 21. जहाँ हेतु और साध्य का अधिकरण भिन्न भिन्न हो वह व्यधिकरण असिद्ध हेत्वाभास कहलाता है, जैसे- शब्द अनित्य है, क्योंकि पट के कृतकपना है। यहाँ पट के कृतकपने से शब्द का अनित्यपना सिद्ध किया वह गलत है, अन्य का धर्म अन्य में नहीं होता, कोई कहे कि शब्द में भी तो कृतक धर्म होता है अत: उसे असिद्ध क्यों कहा जाय? सो बात अयुक्त है, शब्द से कृतकत्व है जरूर किन्तु उसको तो हेतु नहीं बनाया, अन्य जगह कही हुई बात अन्य जगह साध्यसिद्धि के लिये हेतु के उपस्थित करने मात्र से सर्वत्र सभी प्रकार के साध्यों की सिद्धि हो बैठेगी। अतः पट के कृतकत्व से शब्द से अनित्यपना सिद्ध करना अशक्य है, शब्द के कृतकत्व से ही शब्द में कृतकत्व सिद्ध हो सकता है अन्यथा व्यधिकरणासिद्ध नामा हेत्वाभास होगा।

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