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प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
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कथमस्याऽसिद्धत्वमित्याहस्वरूपेणासिद्धत्वात् इति ॥24॥
13. चक्षुर्ज्ञानग्राह्यत्वं हि चाक्षुषत्वम्, तच्च शब्दे स्वरूपेणासत्त्वादसिद्धम्। पौद्गलिकत्वात्तत्सिद्धिः; इत्यप्यपेशलम्; तदविशेषेप्यनुद्भूतस्वभावस्यानुपलम्भसम्भवाज्जलकनकादिसंयुक्तानले भासुररूपोष्णस्पर्शवदित्युक्तं तत्पौद्गलिकत्वसिद्धिप्रघट्टके।
सूत्रार्थ- जिसको सत्ता विद्यमान नहीं हो वह असत् सत्ता या स्वरूपसिद्ध हेत्वाभास है, जैसे किसी ने अनुमान वाक्य कहा कि- शब्द परिणामी है, क्योंकि वह चाक्षुष है, नेत्र द्वारा ग्राह्य है तब वह यह अनुमान गलत है, शब्द चाक्षुष नहीं होता, शब्द में चाक्षुष धर्म स्वरूप से ही असिद्ध है इसी का खुलासा करते हैं
स्वरूपेणासिद्धत्वात् ॥24॥ सूत्रार्थ- शब्द को चाक्षुष कहना स्वरूप से ही असिद्ध है।
13. चक्षु सम्बन्धी ज्ञान के द्वारा जो ग्रहण में आता है ऐसे रूप जो नील पीतादि हैं वे चाक्षुष हैं, ऐसा चाक्षुषपना शब्द का स्वरूप नहीं है अतः शब्द को चाक्षुष हेतु से परिणामी सिद्ध करना असिद्ध हेत्वाभास कहा जाता है कोई कहे कि शब्द भी पुद्गल है और चाक्षुष रूपादि धर्म भी पुद्गल है अतः पुद्गलपने की अपेक्षा समानता है, तथा शब्द को जब जैन लोग पौद्गलिक मानते हैं तब उसमें चाक्षुषपना होना जरूरी है, अत: चाक्षुष हेतु से शब्द को परिणामी सिद्ध करना कैसे गलत हो सकता है?
तब यह शंका ठीक नहीं, यद्यपि शब्द में पौद्गलिकपने की अपेक्षा चाक्षुष की अविशेषता है अर्थात् शब्द में चाक्षुष धर्म जो नीलादिरूप है वह रहता है किन्तु वह अनुद्भूत स्वभाव वाला है, इसलिये दिखायी नहीं देता, शब्द में रूप की अनुभूति उसी प्रकार की है कि जिस प्रकार की अनुभूति जल में संयुक्त हुए अग्नि की है अर्थात् जैसे वैशेषिकादि का कहना है कि जल अग्नि से संयुक्त होता है तब उस अग्नि का चमकीला रूप अनुभूत अप्रकट रहता है, इस