________________
5/3
प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार:
यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्त उपेक्षते चेति प्रतीतेः ॥3॥
215
5. यः प्रतिपत्ता प्रमिमीते स्वार्थग्रहणपरिणामेन परिणमते स एव निवृत्ताज्ञान: स्वविषये व्यामोहविरहितो जहात्यभिप्रेतप्रयोजनाप्रसाधकमर्थम्, तत्प्रसाधकं त्वादत्ते, उभयप्रयोजनाऽप्रसाधकं तूपेक्षणीयमुपेक्षते चेति प्रतीते: प्रमाणफलयोः कथञ्चिद्भेदाभेदव्यवस्था प्रतिपत्तव्या ।
6. नन्वेवं प्रमातृप्रमाणफलानां भेदाभावात्प्रतीतिप्रसिद्धस्तद्व्यवस्थाविलोपः स्यात् तदसाम्प्रतम् कथञ्चिल्लक्षणभेदतस्तेषां भेदात् आत्मनो
प्रमाण के फल के विषय में इसी भेदाभेद अर्थ को स्पष्ट करते हुए आचार्य सूत्र द्वारा लौकिक तथा शास्त्रज्ञ में प्रसिद्ध ऐसी प्रतीति को दिखाते हैं
यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्त उपेक्षते चेति प्रतीतेः ॥३॥
सूत्रार्थ - जो जानता है वही अज्ञान रहित होता है एवं हेय को छोड़ता है, उपादेय को ग्रहण करता है, उपेक्षणीय पदार्थ में मध्यस्थ होता है - इस प्रकार सभी को प्रतिभासित होता है।
5. जो प्रमाता जानता है अर्थात् स्व पर ग्रहणरूप परिणाम से परिणमता है उसी का अज्ञान दूर होता है, व्यामोह [संशयादि] से रहित होता है, वही प्रमाता पुरुष अपने इच्छित प्रयोजन को सिद्ध नहीं करने वाले पदार्थ को छोड़ देता है और प्रयोजन को सिद्ध करने वाले को ग्रहण करता है जो न प्रयोजन का साधक है और न असाधक है अर्थात् उपेक्षणीय है उस पदार्थ की उपेक्षा कर देता है, इस तरह तीन प्रकार से प्रमाता की प्रक्रिया प्रतीति में आती है, इसलिये प्रमाण से प्रमाण का फल कर्थोचत् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होता है।
6. शंका प्रमाण के विषय में इस तरह मानेंगे तो प्रमाता, प्रमाण और फल इनमें कुछ भी भेद नहीं रहेगा, फिर यह जगत् प्रसिद्ध प्रमाता आदि का व्यवहार समाप्त हो जायेगा।