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5/3 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
219 12. प्रत्यासत्तिविशेषात्प्रदीपात्मनः प्रदीप एव समवायो नान्यत्रेति चेत्; स कोऽन्योन्यत्र कथञ्चित्तादात्म्यात्। एतेन प्रकाशनक्रियाया अपि प्रदीपात्मकत्वं प्रतिपादितं प्रतिपत्तव्यम्। तस्यास्ततो भेदे प्रदीपस्याऽप्रकाशकद्रव्यत्वानुषङ्गात्।
13. तत्रास्याः समवायान्नायं दोषः; इत्यप्यसमीचीनमः अनन्तरोक्ताऽशेषदोषानुषङ्गात्। तन्नानयोरात्यन्तिको भेदः।
12. शंका- प्रत्यासत्ति की विशेषता से प्रदीप में ही प्रदीपत्वस्वरूप का समवाय होता है अन्यत्र नहीं।
समाधान- वह प्रत्यासत्ति विशेष कौन है, कथंचित् तादात्म्य ही तो है? तादात्म्य को छोड़कर प्रत्यासत्ति विशेष कुछ भी नहीं है।
जिस प्रकार का स्वरूप प्रदीप से भिन्न नहीं है प्रदीप का प्रदीपपना या स्वरूप प्रदीपात्मक ही है ऐसा सिद्ध हुआ, इसी प्रकार प्रदीप की प्रकाशन क्रिया प्रदीप स्वरूप ही है ऐसा समझना चाहिये, यदि प्रकाशन क्रिया को प्रदीप से भिन्न माना जायेगा तो प्रदीप अप्रकाशन द्रव्य बनेगा।
__13. शंका- प्रदीप का प्रकाशकत्व यद्यपि पृथक् है तो भी प्रदीप में उसका समवाय होने से कोई दोष नहीं आता।
समाधान- यह कथन भी अनुचित है, इसमें वही पूर्वोक्त दोष आते हैं, अर्थात् प्रदीप का प्रकाशत्व प्रदीप से भिन्न है तो उसका समवाय प्रदीप में होता है अन्यत्र नहीं होता ऐसा नियम नहीं बनता प्रकाशत्व का समवाय होने से पहले प्रदीप भी अप्रकाशरूप था और घट पटादि पदार्थ भी अप्रकाश स्वरूप थे, फिर प्रदीप में ही प्रकाशकत्व क्यों आया? घटादि में क्यों नहीं आया? इत्यादि शंकाओं का समाधान नहीं कर सकने से समवाय पक्ष की बात असत्य होती है। इस प्रकार प्रमाण और प्रमाण के फल में अत्यन्त भेद-सर्वथा भेद मानना सिद्ध नहीं होता।