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220 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
5/3 14. नाप्यभेदः, तदऽव्यवस्थानुषङ्गात्। न खलु 'सारूप्यमस्य प्रमाणमधिगतिः फलम्' इति सर्वथा तादात्म्ये व्यवस्थापयितुं शक्यं विरोधात्।
15. ननु सर्वथाऽभेदेप्यनयोर्व्यावृत्तिभेदात्प्रमाणफलव्यवस्था घटते एव, अप्रमाणव्यावृत्त्या हि ज्ञानं प्रमाणमफलव्यावृत्त्या च फलम् इत्यप्यविचारितरमणीयम्; परमार्थतः स्वेष्टसिद्धिविरोधात्। न च स्वभावभेद
14. प्रमाण और उसके फल में सर्वथा अत्यन्त अभेद भी नहीं है। क्योंकि सर्वथा अभेद माने तो इनकी व्यवस्था नहीं होगी कि यह प्रमाण है और यह उसका फल है। बौद्ध कहते हैं कि प्रमाण और उसके फल की व्यवस्था बन जायेगी, ज्ञान का पदार्थ के आकार होना प्रमाण है और उस पदार्थ को जानना प्रमाण का फल है। किन्तु वह भी ठीक बात नहीं। है उन दोनों में सर्वथा तादात्म्य अर्थात् अभेद मानने में उक्त व्यवस्था विरुद्ध पड़ती है। तादात्म्य एक ही वस्तुरूप होता है। उसमें यह प्रमाण है यह उसका फल है इत्यादि रूप व्यवस्था होना शक्य नहीं है।
15. यहाँ शंका उपस्थित होती है कि- प्रमाण और फल में सर्वथा अभेद होने पर भी व्यावृत्ति के भेद से प्रमाण फल की व्यवस्था घटित होती है- ज्ञान अप्रमाण की व्यावृत्ति से प्रमाण कहलाता है और अफल की व्यावृत्ति से फल कहलाता है।
समाधान बतलाते हुए आचार्य कहते हैं कि- यह कथन अविचारपूर्ण है, इस तरह व्यावृत्ति की कल्पना से भेद बतायेंगे तो अपना इष्ट वास्तविकरूप से सिद्ध नहीं होगा काल्पनिक ही सिद्ध होगा। अभिप्राय यह समझना कि बौद्ध प्रमाण और उसके फल में सर्वथा अभेद बतलाकर व्यावृत्ति से भेद स्थापित करना चाहते हैं, अप्रमाण की व्यावृत्ति प्रमाण है और अफल की व्यावृत्ति फल है ऐसा इनका कहना है किन्तु यह परमार्थभूत सिद्ध नहीं होता। अप्रमाण कौन सा पदार्थ है तथा उससे व्यावृत्त होना क्या है इत्यादि कुछ भी न बता सकते हैं और न सिद्ध ही होता है। तथा प्रमाण और फल में स्वभाव भेद सिद्ध हुए बिना केवल अन्य की व्यावृत्ति से भेद मानना अशक्य है इस विषय में साकार ज्ञानवाद के प्रकरण में बहुत कुछ कह दिया है। बौद्ध अप्रमाण की