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प्रमेयकमलमार्तण्डसारः मन्तरेणान्यव्यावृत्तिभेदोप्युपपद्यते इत्युक्तं सारूप्यविचारे। कथं चास्याऽप्रमाणफलव्यावृत्त्या प्रमाणफलव्यवस्थावत् प्रमाणफलान्तरव्यावृत्त्याऽप्रमाणफल
व्यावृत्ति से प्रमाण की और अफल की व्यावृत्ति से फल की व्यवस्था करते हैं, तो यदि इस विषय में विपरीत प्रतिपादन करें कि प्रमाणान्तर की व्यावृत्ति अप्रमाण कहलाता है और फलान्तर की व्यावृत्ति अफल कहलाता है तो इसका समाधान आपके पास कुछ भी नहीं है, अत: परमार्थभूत सत्य प्रमाण तथा फल को सिद्ध करना है तो इन दोनों में कथंचित् भेद है ऐसी प्रतीति सिद्ध व्यवस्था स्वीकार करना चाहिये अन्यथा प्रमाण तथा फल दोनों की भी व्यवस्था नहीं बन सकती ऐसा निश्चय हुआ।'
इस सम्पूर्ण प्रकरण का सार यह है कि प्रमाण का फल प्रमाण से भिन्न है कि अभिन्न है इस विषय में दार्शनिकों में विवाद है, नैयायिकादि उसको सर्वथा भिन्न मानते हैं, तो बौद्ध सर्वथा अभिन्न, किन्तु ये दोनों मत प्रतीति से बाधित होते हैं, प्रमाण का साक्षात् फल जो अज्ञान दूर होना है वह तो प्रमाण से अभिन्न है क्योंकि जो व्यक्ति जानता है उसी की अज्ञान निवृत्ति होती है ज्ञान और ज्ञान की ज्ञप्ति जानन क्रिया ये भिन्न-भिन्न होती है।
यह जो कथन है कि कर्ता, करण और क्रिया ये सब पृथक्-पृथक् ही होने चाहिये जैसे देवदत्त कर्ता वसूलाकरण द्वारा काष्ठ को छेदता है, इसमें कर्त्ता करण और छेदन क्रिया पृथक्-पृथक् है, किन्तु ऐसी बात ज्ञान के विषय में नहीं हो सकती। यह नियम नहीं है कि कर्त्ता, करण आदि सर्वथा पृथक् पृथक् ही हो, प्रदीप कर्ता प्रकाशरूप करण द्वारा घट को प्रकाशित करता है, इसमें प्रदीप कर्त्ता से प्रकाश रूप करण पृथक् नहीं दिखता न कोई उसे पृथक् मानता ही है एवं प्रकाशन क्रिया भी भिन्न नहीं है प्रमाण और फल, वसूला और काष्ठ छेदन क्रिया के समान नहीं है अपितु प्रकाश और प्रकाशन क्रिया के समान अभिन्न है अतः प्रमाण से उसके फल को सर्वथा भिन्न मानने का हठाग्रह अज्ञान पूर्ण है।