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प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार:
कलापादुपजायमानं स्वपरग्रहणव्यापारलक्षणोपयोगरूपं सत्स्वार्थव्यवसायरूपतया परिणमते इत्यभेदेऽप्यनयोः कार्यकारणभावाऽविरोधः ।
4. नन्वेवमज्ञाननिवृत्तिरूपतयेव हानादिरूपतयाप्यस्य परिणमनसम्भवात् तदप्यस्याऽभिन्नमेव फलं स्यात्; इत्यप्यसुन्दरम् ; अज्ञाननिवृत्तिलक्षणफलेनास्य व्यवधानसम्भवतो भिन्नत्वाविरोधात् । अत आहहानोपादानोपेक्षाश्च प्रमाणाद्भिन्नं फलम् अत्रापि कथञ्चिद्भेदो द्रष्टव्यः । सर्वथा भेदे प्रमाणफलव्यवहारविरोधात् । अमुमेवार्थ स्पष्टयन् यः प्रमिमीते इत्यादिना लौकिकेतरप्रतिपत्तिप्रसिद्धां प्रतीतिं दर्शयति
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वो शक्ति नहीं होती कि वह अज्ञान की निवृत्ति कर सके इस प्रमाण का साधकतम स्वभाव तो स्व और पर को ग्रहण करने के व्यापार रूप स्व-पर को ग्रहण करने में अभिमुख होना है।
इस प्रकार के स्वभाव वाला प्रमाण अपने सामग्री से उत्पन्न होता हुआ स्व-पर को ग्रहण करना रूप व्यापार लक्षण से युक्त उपयोग रूप परिणमन करता है जो स्व-पर का निश्चयात्मक स्वरूप होता है [ संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रहित सविकल्प से स्व और पर का निश्चय करता है ] इस प्रकार प्रमाण और उसका फल इनमें कार्य कारण भाव का अविरोध है।
4. शंका- इस तरह आप अज्ञान निवृत्तिरूप फल को प्रमाण से अभिन्न मानते हैं तो हान उपादान और उपेक्षारूप फल को भी प्रमाण से अभिन्न मानना चाहिये ? क्योंकि हानोपादानादिरूप से भी प्रमाण का परिणमन [कार्य] होता है।
अतः
समाधान- यह कहना ठीक नहीं है, प्रमाण से प्रथम तो अज्ञान निवृत्तिरूप फल होता है अनन्तर हानादि फल होते हैं, अज्ञान निवृत्तिरूप फल से व्यवधानित होकर ही हानोपादानादि फल उत्पन्न होते हैं, इन हानादिको प्रमाण से कथंचित् भिन्न मानने में कोई विरोध नहीं आता है। इसीलिये प्रमाण से हान, उपादान उपेक्षा फल भिन्न है ऐसा कहा है। यह भिन्नता कथंचित है, यदि हानादि फल को सर्वथा भिन्न मानेंगे तो यह प्रमाण का फल है- इस प्रकार से कह नहीं सकेंगे। अब आगे