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व्यक्तमेव, अभिन्नस्वभावत्वात्तस्य। शब्दाभिव्यक्तिपक्षनिक्षिप्तदोषानुषङ्गश्चात्रापि तुल्य एव।
150. किञ्च, सङ्केतः पुरुषाश्रयः, स चातीन्द्रियार्थज्ञानविकलतयान्यथापि वेदे सङ्केतं कुर्यादिति कथं न मिथ्यात्वलक्षणमस्य प्रामाण्यम्? वस्तु व्यक्त करने योग्य नहीं होती, क्योंकि वह यदि व्यक्त है तो सदा व्यक्त ही रहेगी और अव्यक्त है तो सदा अव्यक्त ही रहगी, इसका भी कारण यह है कि नित्य वस्तु सदा एक अभिन्न स्वभाववाली होती है, तथा संकेत द्वारा सम्बन्ध की अभिव्यक्ति मानने के इस पक्ष में पहले के शब्दाभिव्यक्ति के पक्ष में दिये गये दूषण भी समान रूप से प्राप्त होते हैं।
150. किंच, संकेत पुरुष के आश्रित होता है और पुरुष अतीन्द्रिय ज्ञान से रहित होते हैं अतः ऐसे पुरुष द्वारा वेद में स्थित शब्दों का विपरीत अर्थ में भी संकेत किया जाना संभावित होने से इस वेदवाक्य में मिथ्यापन रूप अप्रामाण्य कैसे नहीं होगा? अर्थात् अवश्य ही होगा।
इस प्रकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने अन्तिम आगम प्रमाण का जो विवेचन प्रमेयकमलमार्तण्ड ग्रन्थ में किया है तथा आर्यिका जिनमति जी ने हिन्दी अनुवाद किया है उसकी अपनी मति के अनुसार हिन्दी व्याख्या करने का यहाँ प्रयास किया गया है। संदर्भ : टिप्पणी
णाणं होदि प्रमाण-ति.प. 1/83 पाणिनी सूत्र-1/4/51 किसी भी वस्तु या पदार्थ को जानना एक कार्य है और यह कार्य अनेक कार्यों से उत्पन्न होता है, एक से नहीं। वो जो कारणों का समूह है उसे ही कारक साकल्य कहते हैं। नैयायिकों के अनुसार कारकसाकल्य से ही प्रमाण की उत्पत्ति होती है। जैन इसकी समीक्षा कर रहे हैं। 'इन्द्रियप्रणालिकया बाह्यवस्तुपरागात् सामान्यविशेषात्मनोऽर्थस्य विशेषावधारणाप्रधाना वृत्तिः प्रत्यक्षम्।' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव सम्बन्ध निश्चित है ऐसे हेतु से। अर्थात् प्रमाण की जो उत्पादक सामग्री-इन्द्रियादिक है उसी सामग्री से। 'उपक्रियते निवृत्तिः येन तत् उपकरणं'।
188:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः