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शकटोदयविरुद्धो ह्यश्विन्युदयस्तत्पूर्वचरो रेवत्युदय इति। विरुद्धोत्तरचरं यथा नोदगाद्भरणिर्मुहूर्तात्पूर्वं पुष्योदयात् ॥76॥
भरण्युदयविरुद्धो हि पुनर्वसूदयस्तदुत्तरचरः पुष्योदय इति। विरुद्धसहचरं यथा
नास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽर्वाग्भागात् ॥77॥ परभागाभावेन हि विरुद्धस्तत्सद्भावस्तत्सहचरोऽर्वाग्भाग इति।
अथोपलब्धिं व्याख्यायेदानीमनुपलब्धिं व्याचष्टे। सा चानुपलब्धिरुपलब्धिवद्भिप्रकारा भवति। अविरुद्धानुपलब्धिर्विरुद्धानुपलब्धिश्चेति। तत्राद्यपूर्वचर रेवती का उदय है, अतः रेवती का उदय रोहिणी के विरुद्ध पूर्वचर कहलाया।
विरुद्ध उत्तरचर हेतु का उदाहरणनोदगाद्भरणिर्मुहूर्तात् पूर्वं पुष्योदयात् ॥76॥
सूत्रार्थ- एक मुहूर्त पहले भरणि का उदय नहीं हुआ क्योंकि पुष्य का उदय हो रहा है। भरणि उदय का विरोधी पुनर्वसु का उदय है और उसका उत्तरचर पुष्योदय है अतः पुष्योदय भरणि उदय का विरुद्ध उत्तरचर है।
विरुद्ध सहचर हेतु का उदाहरणनास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽर्वाग्भागदर्शनात् ॥77॥
सूत्रार्थ- इस भित्ति में पर भाग का अभाव नहीं है क्योंकि अर्वाग्भाव इधर का भाग दिखायी देता है।
परभाग के अभाव का विरोधी उसका सद्भाव है और उसका सहचर अर्वागभाग है अत: यह विरुद्ध सहचर कहा जाता है।
अब उपलब्धि हेतु का कथन करके अनुपलब्धि हेतु का प्रतिपादन करते हैं। वह अनुपलब्धि भी उपलब्धि के समान दो प्रकार की है-अविरुद्ध अनुपलब्धि और विरुद्ध अनुपलब्धि। इनमें प्रथम प्रकार का व्याख्यान करते हैं
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 161