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1/13 प्रामाण्यविमर्शः
ननूक्तलक्षणप्रमाणस्य प्रामाण्यं स्वतः परतो वा स्यादित्याशङ्कय प्रतिविधत्ते।
तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च॥13॥
54. तस्य स्वापूर्वार्थत्यादिलक्षणलक्षितप्रमाणस्य प्रामाण्यमुत्पत्ती परत एव। ज्ञप्तौ स्वकार्ये वा स्वतः परतश्च अभ्यासानभ्यासापेक्षया।
प्रामाण्यविमर्श
विभिन्न प्रमाणों द्वारा अब यह तो सिद्ध हो ही गया है कि स्व-पर दोनों को जानने वाले निश्चयात्मक अपूर्वार्थ ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। इस प्रकार प्रमाण का लक्षण सुव्यवस्थित हो गया।
53. पुनः उक्त लक्षण के द्वारा कहे गये प्रमाण में प्रमाणता स्वतः होती है कि परतः होती है? यदि ऐसी शंका उत्पन्न हो तो उसके समाधान के लिए आचार्य माणिक्यनन्दि आगे सूत्र कहते हैं
तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ॥3॥
सूत्रार्थ- 'प्रमाण की वह प्रमाणता स्वतः और परतः होती है।' अर्थात् 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं-' यह जो प्रमाण का लक्षण हमने कहा है उसकी प्रमाणता का निश्चय अभ्यास दशा में स्वतः होता है और अनभ्यास दशा में परतः होता है। परिचित अवस्था को अभ्यास दशा और अपरिचित अवस्था को अनभ्यास दशा कहते हैं।
54. मनीषि आचार्य प्रभाचन्द्र कहते हैं कि स्व-पर व्यवसायी जो प्रमाण है उसमें प्रमाणता कहीं स्वतः होती है और कहीं परत: होती है। प्रमाण में प्रमाणता की उत्पत्ति तो पर से ही होती है। और उसमें प्रमाणता को जानने रूप जो ज्ञप्ति है तथा उसकी जो स्व-कार्य रूप प्रवृत्ति है-अर्थपरिच्छित्ति है वह तो अभ्यासदशा में स्वत: और अनभ्यासदशा में 'पर' से आया करती है।
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 45