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देशादिव्यवधानेपि तुल्यजातीयानामपेक्षाकृता प्रत्यासत्तिः सामीप्यमित्युक्तम्, एवमत्राप्यव्यवधानेन प्रमाणान्तरनिरपेक्षतया प्रतिभासनं वस्तुनोऽनुभवो वैशा विज्ञानस्येति।
11. नन्वेवमीहादिज्ञानस्यावग्रहाद्यपेक्षत्वादव्यवधानेन प्रतिभासनलक्षणवैशद्याभावात्प्रत्यक्षता न स्यात्; तदसारम्: अपरापरेन्द्रियव्यापारादेवावग्रहादीनामुत्पत्तेस्तत्र तदपेक्षत्वासिद्धेः। एकमेव चेदं विज्ञानमवग्रहाद्यतिशयवदपरापरचक्षुरादिव्यापारादुत्पन्नं सत्स्वतन्त्रतया स्वविषये प्रवर्त्तते इति प्रमाणान्तराव्यवधानमत्रापि प्रसिद्धमेव। अनुमानादिप्रतीतिस्तु लिङ्गादिप्रतीत्यैव दूसरे ज्ञान की सहायता से जो निरपेक्ष है और जिसमें विशेषाकार का प्रतिभास हो रहा है ऐसा ज्ञान ही विशद कहा गया है, तथा यही ज्ञान की विशदता है जो अपने विषय को जानने में अन्य ज्ञान की सहायता नहीं चाहता है और जिसमें पदार्थ का प्रतिभास विशेषाकार रूप से होता है।
11. शंका- ईहा आदि ज्ञानों में अवग्रह आदि ज्ञानों की अपेक्षा रहती है, अतः अव्यवधान रूप से जो प्रतिभास होता है वह वैशद्य है ऐसा वैशद्य का लक्षण उन ईहादिज्ञानों में घटित नहीं होता है, अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष कैसे कहलायेंगे?
समाधान- इस कथन में कोई सार नहीं है। क्योंकि अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप ज्ञानों की उत्पत्ति अन्य-अन्य इन्द्रियों के व्यापार से होती है, इसलिये ईहादि की उत्पत्ति में अवग्रह आदि की अपेक्षा नहीं पड़ती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि ये अवग्रहादि भेद मूलभूत मतिज्ञान के हैं और वह मतिज्ञान चक्षुरादि इन्द्रियों से उत्पन्न होता है। अतः अवग्रहादि रूप अतिशय वाला तथा अन्य-अन्य चक्षु आदि इन्द्रियों के व्यापार से उत्पन्न हुआ मतिज्ञान स्वतन्त्र रूप से अपने विषय में प्रवृत्ति करता है, इसलिये यहाँ पर भी (ईहादि रूप मतिज्ञान में भी) प्रमाणान्तर का व्यवधान नहीं होता है। परन्तु अन्य जो अनुमानादि ज्ञान हैं वे लिंग ज्ञान आदि की अपेक्षा लेकर ही स्वविषय में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए इनमें अव्यवधान से प्रतिभास का अभाव होने से प्रत्यक्षता का अभाव है।
54:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः