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खलु स्थाणुनिबन्धना पुरुषभ्रान्तिस्तद्देशादन्यत्र दृष्टा। कथं च तद्देशता तदाकारता चाऽसती तज्ज्ञानं जनयेद्यतो ग्राह्या स्यात्।
25. अथ भ्रान्तिवशात्तत्केशा एव तत्र तथा तज्ज्ञानं जनयन्ति; अस्माकमपि तर्हि 'चक्षुर्मनसी रूपज्ञानमुत्पादयेते' इति समानम्। यथैव ह्यन्यविषयजनितं ज्ञानमन्यविषयस्य ग्राहक तथान्यकारणजनितमपि स्यात्। एवं तर्हि तत्तयोः प्रकाशकमपि न स्यादित्याह
अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकम् ॥8॥ ताभ्यामर्थालोकाभ्यामजन्यमपि तयोः प्रकाशकम्। अत्रैवार्थे प्रदीपवदित्युभयप्रसिद्ध दृष्टान्तमाह
25. यदि कहा जाय कि नेत्र के केश ही भ्रमवश आकाश में केशोण्डुक रूप से केशोण्डुक का ज्ञान पैदा करते हैं, तो जैनाचार्य कहते हैं कि नेत्र तथा मन ही ऐसे ज्ञान को उत्पन्न करता है? इस तरह समान ही बात हो जाती है? जिस प्रकार अन्य विषय से उत्पन्न हुआ ज्ञान अन्य विषय का ग्राहक होता है ऐसा यहाँ मान रहे हो, उसी प्रकार अन्य कारण से उत्पन्न हुआ ज्ञान अन्य को जानता है ऐसा भी मानना चाहिए। प्रश्न अब यदि कोई यह कहता है कि जन पदार्थ और प्रकाश ज्ञान में कारण नहीं हैं तो उनको ज्ञान प्रकाशित भी नहीं करता होगा? अतः इस शंका का निवारण करने हेतु सूत्र कहते हैं
अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकम् ॥8॥
सूत्रार्थ- ज्ञान पदार्थ और प्रकाश से उत्पन्न न होकर भी उनको प्रकाशित करता है। इस विषय में वादी प्रतिवादी के यहाँ प्रसिद्ध ऐसा दृष्टान्त देते हैं
प्रदीपवत् ॥9॥
सूत्रार्थ-जैसे दीपक घटादि पदार्थ से उत्पन्न न होकर भी घटादि को प्रकाशित करता है, वैसे ही ज्ञान पदार्थादि से उत्पन्न न होकर भी उनको प्रतिभासित करता है।
64:: प्रमेयकमलमार्तण्डसार: