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शकटोदयात्प्राक्तथैव भरण्युदयादपि। यदि चातीतानागतयोरेकत्र कार्ये व्यापारः; तास्वाद्यमानसस्यातीतो रसो भावि च रूपं हेतुः स्यात्। ततो न वर्तमानस्य रूपस्य वातीतस्य वा प्रतीतिः। इत्ययुक्तमुक्तम्-अतीतैककालानां गतिर्नाऽनागतानाम् इति।
अभाव रूप होता है अतः इनमें पूर्वचरादि हेतु अन्तर्भूत नहीं हो सकते।
कार्य हेतु में अन्तर्भाव करना चाहे तो वह भी असम्भव है क्योंकि कृतिका नक्षत्र का उदय भरणी और रोहिणी के अन्तराल काल में होता है अर्थात् भरणी उदय के अनन्तर और रोहिणी के पहले होता है अतः यह भरणी उदय का तो उत्तरचर हेतु है, अर्थात् कृतिका का उदय हुआ देखकर भरणी उदय का निश्चय हो जाता है। तथा कृतिकोदय के एक मुहूर्त पश्चात् रोहिणी का उदय होता है अतः उसके लिये यह कृतिकोदय पूर्वचर हेतु होता है, इस प्रकार कृतिकोदय भरणी उदय आदि से काल व्यवधान को लिये हुए है, जिनमें काल का व्यवधान पड़ता है उन पदार्थों में कार्य कारणभाव नहीं माना जाता।
फिर भी बौद्ध की मान्यता यह है कि कृतिकोदय हेतु का कार्य हेतु में ही अन्तर्भाव करना चाहिए, इस मान्यता पर विचार करते हैंकृतिकोदय एक कार्य है ऐसा मानकर उसमें अतीत भरणी उदय और अनागत रोहिणी उदय कारण पड़ते हैं ऐसा स्वीकार करते हैं तो पहली बाधा तो यह आती है कि जिसका कारण अभी आगे होने वाला है उसकी प्रतीति नहीं हो सकेगी क्योंकि कारण ही नहीं तो उसका कार्य किस प्रकार दृष्टिगोचर होगा? दूसरी बाधा यह होगी कि स्वयं बौद्ध मानते हैं कि-"अतीतैककालानां गतिर्नागतानाम्" अतीत और वर्तमानवर्ती रूपादि साध्य की ही कार्य हेतु द्वारा अवगति (ज्ञान) होती है, अनागत साध्य की नहीं। अतः कृतिकोदयरूप पूर्वचर आदि हेतुओं का कार्यहेतु में अन्तर्भाव करना कथमपि सिद्ध नहीं होता।
15. प्रमाणवार्तिक स्ववृत्ति 1/13 146:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः