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उदगाद्भरणिस्तत एव ॥69॥ कृत्तिकोदयादेव। उत्तरोत्तरचरमेतेनैव सङ्गह्यते। सहचरं लिङ्ग यथाअस्त्यत्र मातुलिङ्गे रूपं रसात् ॥7॥ संयोगिन एकार्थसमवायिनश्च साध्यसमकालस्यात्रैवान्तर्भावो द्रष्टव्यः।
अथाविरुद्धोपलब्धिमुदाहृत्येदानीं विरुद्धोपलब्धिमुदाहर्तुं विरुद्धेत्याद्याह
उदगाद् भरणिस्तत एव ॥69॥
सूत्रार्थ- एक मुहूर्त पहले भरणि नक्षत्र का उदय हो चुका है क्योंकि कृतिकोदय हो रहा है। इसी हेतु में उत्तर उत्तरचर हेतु गर्भित होता
सहचर हेतु का उदाहरणअस्त्यत्र मातुलिंगे रूपं रसात् ॥70॥ सूत्रार्थ- इस बिजौरे में रूप है क्योंकि रस है।
साध्य के समकाल में होने वाले संयोगी और एकार्थसमवायी हेतु का इसी सहचर हेतु में अन्तर्भाव हो जाता है।
आचार्य विशेष रूप से यह बतलाना चाहते हैं कि- नैयायिक मत में संयोगी और एकार्थ समवायी हेतु भी माने हैं, जैनाचार्य ने इनको सहचर हेतु में अन्तर्भूत किया है। जो साध्य के समकाल में हो तथा साध्य का कार्य या कारण न हो वह सहचर हेतु कहलाता है, उक्त संयोगी आदि हेतु इसी रूप हैं। जैसे- यहाँ आत्मा का अस्तित्व है, क्योंकि विशिष्ट शरीराकृति विद्यमान है।
आत्मा और शरीर का संयोग होने से विशिष्ट शरीर रूप हेतु संयोगी कहलाता है, इसका सहचर हेतु में सहज ही अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि जैसे बिजौरे में रूप और रस साथ उत्पन्न होते हैं वैसे विवक्षित पर्याय में आत्मा और शरीर साथ रहते हैं।
एकार्थ समवायी हेतु भी सहचर हेतु रूप है- एक अर्थ में समवेत होने वाले रूप रस आदि अथवा ज्ञान दर्शन आदि हैं इनमें से एक को देखकर अन्य का अनुमान होता है। पूर्वचर हेतु का उदाहरण
158:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः