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स्यात्, बहिरन्तर्वाऽस्मदादिप्रत्यक्षस्याशेषविशेषतोऽर्थसाक्षात्करणेऽसमर्थत्वात्, योगिप्रत्यक्षस्यैव तत्र सामर्थ्यात्।
ननु प्रयोगकालवव्याप्तिकालेपि तद्विशिष्टस्य धर्मिण एव साध्यव्यपदेशः कुतो न स्यादित्याशङ्कयाह
व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव ॥32॥ न पुनस्तद्वान् अन्यथा तदघटनात् ॥33॥
83. अनेन हेतोरन्वयासिद्धेः। न खलु यत्र यत्र कृतकत्वादिक प्रतीयते तत्र तत्रानित्यत्वादिविशिष्टशब्दाद्यन्वयोस्ति। कहलायेगा, क्योंकि अन्तरंग या बहिरंग (चेतनाचेतन) पदार्थ को जानने वाला हम जैसे सामान्य व्यक्ति का प्रत्यक्ष ज्ञान (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष प्रमाण) पूर्ण विशेषता के साथ पदार्थ का साक्षात्कार करने में असमर्थ है, ऐसा साक्षात्कार करने में तो योगी प्रत्यक्षज्ञान (पारमार्थिक प्रत्यक्ष प्रमाण) ही समर्थ है।
शंका- प्रयोगकाल के समान व्याप्तिकाल में भी साध्यधर्म विशिष्ट धर्मी को ही साध्य क्यों नहीं बनाते?
समाधान- इस शंका का समाधान आगे के दो सूत्रों द्वारा करते
हैं
व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव ॥32॥ अन्यथा तदघटनात् ॥33॥
सूत्रार्थ- व्याप्ति करते समय धर्म को ही साध्य बनाते हैं न कि धर्मविशिष्ट धर्मी को, क्योंकि धर्मी को (पर्वतादि को) साध्य बनाने पर व्याप्ति घटित नहीं हो सकती। अर्थात् जहाँ-जहाँ धूम है वहाँ वहाँ पर्वत है ऐसी व्याप्ति नहीं होती अपितु जहाँ जहाँ धूम है वहाँ वहाँ साध्य धर्म अग्नि है ऐसी व्याप्ति ही घटित होती है।
83. इसका भी कारण यह है कि धर्मी के साथ हेतु का अन्वय प्रसिद्ध है। जैसे शब्द अनित्य है (धर्मी) क्योंकि वह कृतक है (हेतु) 122:: प्रमेयकमलमार्तण्डसार: