________________
2/10
अर्थप्रकाशकं च ज्ञानमिति। प्रतिनियतस्वावरणक्षयोपशमश्च ज्ञानस्य प्रतिनियतार्थोपलब्धेरेव प्रसिद्धः। न चान्योन्याश्रयः; अस्याः प्रतीतिसिद्धत्वात्।
30. तल्लक्षणयोग्यता च शक्तिरेव। सैव ज्ञानस्य प्रतिनियतार्थव्यवस्थायामङ्ग नार्थोत्पत्त्यादिः, तस्य निषिद्धत्वादन्यत्रादर्शनाच्च। न खलु प्रदीपः प्रकाश्यार्थैर्जन्यस्तेषां प्रकाशको दृष्टः।
किञ्च, प्रदीपोपि प्रकाश्यार्थाऽजन्यो यावत्काण्डपटाद्यनावृतमेवार्थं प्रकाशयति तावत्तदावृतमपि किन्न प्रकाशयेदिति चोद्ये भवतोप्यतो योग्यतातो न किञ्चिदुत्तरम्।
कारणस्य च परिच्छेद्यत्वे करणादिना व्यभिचारः ॥11॥
होता है। ज्ञान भी स्वयोग्य आवरण से रहित होकर पदार्थ का प्रकाशक होता है। इस बात का निश्चय तो प्रतिनियत वस्तु को जानने से ही सिद्ध होता है, कि ज्ञान में इन्हीं प्रतिनियत वस्तुओं को जानने का क्षयोपशम हुआ है। इसमें अन्योन्याश्रय दोष भी नहीं आता, क्योंकि प्रतिनियत विषय तो प्रतीति से सिद्ध हो रहा है।
30. प्रतिनियत वस्तु को जो जानने की योग्यता है उसी को शक्ति कहते हैं, यही शक्ति ज्ञान में प्रतिनियत वस्तु को जानने की व्यवस्था करा देती है इस व्यवस्था का कारण यह शक्ति ही है न कि पदार्थ से उत्पन्न ज्ञान, तदुत्पत्ति आदिक, क्योंकि तदुत्पत्ति तदाकरता आदि का पहले ही निषेध कर आये हैं तथा प्रदीप आदि में ऐसा देखा भी नहीं जाता कि वह घट आदि से उत्पन्न होकर उसको जानता हो। दीपक से प्रकाशित होने वाले जो घट आदि पदार्थ हैं, वह उन घटादि से उत्पन्न होकर उन्हीं घटादिक का प्रकाशक बनता है ऐसा कहीं पर देखा नहीं जाता है।
31. यदि परवादी बौद्ध या नैयायिकादि से पूछा जाय कि दीपक प्रकाशित करने योग्य पदार्थ से जन्य नहीं है किन्तु वह वस्त्र आदि से नहीं ढके हुए पदार्थ को ही प्रकाशित करता है, ढके हुए पदार्थ को क्यों नहीं प्रकाशित करता? इसके समाधान के लिए उन्हें भी जैन के समान
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 67