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तावेवोभयप्रकारौ सुप्रसिद्धव्यक्तिनिष्ठतया सुखावबोधार्थं प्रदर्शयतियथाग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च ॥3॥ 48. ननु चास्याऽप्रमाणत्वात्किं कारणस्वरूपनिरूपणप्रयासेन;
49. इत्यप्यसाम्प्रतम्; यतोस्याप्रामाण्यं गृहीतग्राहित्वात्, विसंवादित्वाद्वा स्यात्, प्रमाणविषयपरिशोधकत्वाद्वा? प्रथमपक्षे साध्यसाधनयोः साकल्येन
होता है, यह साधन इस साध्य के होने पर ही होता है यह तथोपपत्ति कहलाती है, साध्य के बिना साधन नहीं होता, यह अन्यथानुपपत्ति कहलाती है। सूत्र में वा [तु] शब्द उभय प्रकार का सूचक है।
इस तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति रूप उभय प्रकार को सुप्रसिद्ध दृष्टान्त द्वारा सुखपूर्वक अवबोध कराने के लिये कहते हैं
यथाग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च ॥3॥
सूत्रार्थ- जिस प्रकार धूम अग्नि के होने पर ही होता है और अग्नि के अभाव में नहीं होता।
48. यहाँ शंका करते हुये कहते हैं कि- तर्क ज्ञान अप्रमाण है अतः इसके कारण और स्वरूप का प्रतिपादन करना व्यर्थ है?
49. समाधान- आपका यह कथन ठीक नहीं है। पहले हमें यह बतलाइये कि तर्क अप्रमाणभूत किस कारण से है? गृहीत ग्राही होने से, विसंवादित्व होने से या प्रमाण के विषय का परिशोधक होने के कारण?
प्रथम पक्ष- गृहीत ग्राही होने से तर्क ज्ञान अप्रमाणिक है ऐसा माने तो कौन से प्रमाण से उसका विषय ग्रहण हुआ है? साध्य साधन की साकल्य रूप से व्याप्ति प्रत्यक्ष से प्रतीत होती है या अनुमान से? केवल सन्निहित पदार्थ का ग्राहक होने के कारण प्रत्यक्ष ज्ञान देशादि से विप्रकृष्ट [दूरवर्ती] भूत अशेष पदार्थों का ग्राहक नहीं हो सकता तथा उन विषयों में इसका वैशद्यधर्म भी असम्भव है। सत्त्व नित्यत्व आदि तथा अग्नि धूम आदि सभी पदार्थ विशदरूप से प्रतीत होते हुए दिखाई
98:: प्रमेयकमलमार्तण्डसार: