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बाधितत्वात्, तत्पुत्रत्वादेश्चासात्प्रतिपक्षत्वाभावात् तत्प्रतिपक्षस्य शास्त्रव्याख्यानादिलिङ्गस्य सम्भवात्।
64. प्रकरणसमस्याप्यसत्प्रतिपक्षत्वाभावादहेतुत्वम्। तस्य हि लक्षणम् यस्मात् प्रकरणचिन्ता स प्रकरणसमः' इति। प्रक्रियेते साध्यत्वेनाधिक्रियेते अनिश्चितौ पक्षप्रतिपक्षौ यौ तौ प्रकरणम्।
65. तस्य चिन्ता संशयात्प्रभृत्याऽऽनिश्चयात्पर्यालोचना यतो भवति स एव, तन्निश्चयार्थं प्रयुक्तः प्रकरणसमः। पक्षद्वयेप्यस्य समानत्वादुभयत्राप्यन्वयादिसद्भावात्। तद्यथा-'अनित्यः शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेघटादिवत्, यत्पुनर्नित्यं तन्नानुपलभ्यमाननित्यधर्मकम् यथात्मादि' अभाव में दोषी ठहरता है, अर्थात् देवदत्त मूर्ख है इत्यादि उक्त अनुमान के हेतु के प्रतिपक्षभूत शास्त्र-व्याख्यानादि हेतु का होना सम्भव है। यह देवदत्त विद्वान् है क्योंकि शास्त्र का व्याख्यान करता है इत्यादि अनुमान प्रयुक्त होने के कारण तत्पुत्रत्व हेतु सदोष है।
64. हेतु में प्रकरणसम नामा दोष भी असत् प्रतिपक्षत्व लक्षण के न होने से आता है। प्रकरणसम का लक्षण- “यस्मात् प्रकरण चिंता स प्रकरण समः" “प्रक्रियेते साध्यत्वेनाधिक्रियेते अनिश्चितौ पक्षप्रतिपक्षी यौ तौ प्रकरणम्" जिससे प्रकरण की चिन्ता हो उसे प्रकरण सम कहते हैं, साध्यपने से अनिश्चित किये जाते हैं पक्ष प्रतिपक्ष जहाँ उसे "प्रकरण" कहते हैं, अर्थात् वादी द्वारा जो पक्ष निश्चित है वह प्रतिवादी द्वारा अनिश्चित है और जो प्रतिवादी द्वारा निश्चित है वह वादी द्वारा निश्चित नहीं, उसे प्रकरण कहते हैं।
65. उस प्रकरण की चिन्ता संशय के अनंतर समय से लेकर निश्चय होने तक जिससे विचार चलता है वह हेतु ही है उससे निश्चय के लिए प्रयुक्त होना प्रकरण सम है। यह हेतु पक्ष प्रतिपक्ष में समान वर्तता है क्योंकि उभयत्र अन्वय आदि का सद्भाव है, इसी को स्पष्ट करते हैं- शब्द अनित्य है, क्योंकि इसमें नित्य धर्म की अनुपलब्धि है, जैसे घट आदि में नित्य धर्म अनुपलब्ध है, जो नित्य होता है उसमें नित्य 11. न्यायसूत्र 1/2/7
108:: प्रमेयकमलमार्तण्डसार: