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3/6-10 परस्परानुप्रवेशे सर्वेषामेकरूपतानुषङ्गात् कुतश्चित्रतैकनीलाकारज्ञानवत्? तेषां तदननुप्रवेशे भिन्नसन्ताननीलादिप्रतिभासानामिवात्यन्तभेदसिद्धेर्नितरां चित्रताऽसम्भवः। एकज्ञानाधिकरणतया तेषां प्रत्यक्षतः प्रतीतेः प्रतिपादितदोषाभावे प्रकृतेप्यसौ मा भूत्तत एव।।
34. अथोच्यते-'पूर्वमुत्तरं वा दर्शनमेकत्वेऽप्रवृत्तं कथं स्मरणसहायमपि प्रत्यभिज्ञानमेकत्वे जनयेत्? न खलु परिमलस्मरणसहायमपि चक्षुर्गन्धे ज्ञानमुत्पादयति' इति;
35. तदप्युक्तिमात्रम्; तथा च तज्जनकत्वस्यात्र प्रमाणप्रतिपन्नत्वात्। न च प्रमाणप्रतिपन्नं वस्तुस्वरूपं व्यलीकविचारसहस्रेणाप्यन्यथाकर्तुं शक्यं सहकारिणां चाचिन्त्यशक्तित्वात्। कथमन्यथाऽसर्वज्ञज्ञानमभ्यासविशेषसहायं सर्वज्ञज्ञानं जनये? अर्थात् नहीं आ सकती, जिस प्रकार नील आकार वाले ज्ञान में नहीं होती। तथा नीलादि अनेक आकार परस्पर में प्रविष्ट नहीं हैं ऐसा मानते हैं तो वे आकार भिन्न भिन्न सन्तानों के नील पीत आदि प्रतिभासों के समान अत्यन्त भिन्न सिद्ध होने से उनमें चित्रता होना नितरां असम्भव है। यदि बौद्ध कहें कि एकाधिकरणपने से नील पीतादि आकारों की प्रत्यक्ष से प्रतीति होती है अत: उपर्युक्त दोष नहीं आते हैं, तो प्रकृत प्रत्ययभिज्ञान में भी उपर्युक्त दोष नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसमें भी एकाधिकरणत्व की प्रत्यक्ष से प्रतीति आती है।
34. बौद्ध- पूर्व प्रत्यक्ष अथवा उत्तर प्रत्यक्ष एकत्व विषय में प्रवृत्त नहीं होता अतः स्मरण की सहायता लेकर भी वह प्रत्यभिज्ञान को किस तरह उत्पन्न कर सकेगा, सुगन्धि की सहायता मिलने पर भी क्या चक्षु गंध विषय में ज्ञान को उत्पन्न कर सकती है?
35. जैन- यह कथन अयुक्त है। क्यों कि प्रत्यक्ष का एकत्व विषय में ज्ञान उत्पन्न करना प्रमाण से प्रसिद्ध है। प्रमाण से प्रतिभासित हुए वस्तुस्वरूप को झूठे हजारों विचारों द्वारा भी अन्यथा नहीं कर सकते। क्योंकि सहकारी कारणों की अचिन्त्य शक्ति हुआ करती है, यदि ऐसा नहीं होता तो असर्वज्ञ का ज्ञान अभ्यास की सहायता लेकर सर्वज्ञ ज्ञान
प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 91