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36. एकत्वविषयत्वं च दर्शनस्यापि, अन्यथा निर्विषयकत्वमेवास्य स्यादेकान्ताऽनित्यत्वस्य कदाचनाप्यप्रतीतेः। केवलं तेनैकत्वं प्रतिनियतवर्तमानपर्यायाधारतयार्थस्य प्रतीयते, स्मरणसहायप्रत्यक्षजनितप्रत्यभिज्ञानेन तु स्मर्यमाणानुभूयमानपर्यायाधारतयेति विशेषः।
37. न च लूनपुनर्जातनखकेशादिवत्सर्वत्र निर्विषया प्रत्यभिज्ञा; क्षणक्षयैकान्तस्यानुपलम्भात्। तदुपलम्भे हि सा निर्विषया स्यात् एकचन्द्रोपलम्भे द्विचन्द्रप्रतीतिवत्।
38. गुनपुनर्जातनखकेशादौ च स एवायं नखकेशादि:'
को कैसे उत्पन्न कर सकता था?
36. दूसरी बात यह है कि प्रत्यभिज्ञान का ही विषय एकत्व हो, यह बात भी नहीं, प्रत्यक्ष भी एकत्व विषय का ग्राहक है अन्यथा यह ज्ञान निर्विषयक हो जायेगा, क्योंकि सर्वथा अनित्य की कभी भी प्रतीति नहीं होती है। प्रत्यक्ष और प्रत्यभिज्ञान में अन्तर केवल यह है कि प्रत्यक्ष ज्ञान प्रतिनियत वर्तमान पर्याय के आधारभूत द्रव्य के एकत्व को ग्रहण करता है और प्रत्यभिज्ञान स्मरण तथा प्रत्यक्ष की सहायता से उत्पन्न होकर स्मर्यमान पर्याय और अनुभूयमान पर्याय इन दोनों के आधारभूत द्रव्य के एकत्व को ग्रहण करता है।
37. जिस प्रकार काटकर पुनः उत्पन्न हुए नख केश आदि में होने वाला एकत्व का प्रतिभास निर्विषय है उसी प्रकार प्रत्यभिज्ञान सर्वत्र निर्विषय है अर्थात् इसका कोई विषय नहीं है- ऐसा भी नहीं कहना, क्योंकि क्षणिक एकांत की अनुपलब्धि है, यदि क्षणिक एकान्त सिद्ध होता तो प्रत्यभिज्ञान को निर्विषयी मानते, जिस प्रकार एक चन्द्र के उपलब्ध होने पर द्विचन्द्र के ज्ञान को निर्विषयी मानते हैं।
38. कटकर पुनः उत्पन्न हुए नख केश आदि में वही यह नख केशादि है ऐसी प्रतीति कराने वाला एकत्व प्रत्यभिज्ञान, कटे हुए नख केश के समान यह पुनः उत्पन्न हुए नख केशादि हैं- इस तरह के होने वाले सादृश्य प्रत्यभिज्ञान से बाधित होता है अतः अप्रमाण है किन्तु
92:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः