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सत्सम्प्रयोगजत्वेन स्मरणपश्चाद्भावित्वेप्यस्याः प्रत्यक्षत्वाविरोधात्। उक्तं च
न हि स्मरणतो यत्प्राक् तत् प्रत्यक्षमितीदृशम्। वचनं राजकीयं वा लौकिकं वापि विद्यते ॥1॥ न चापि स्मरणात्पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्त्तनम्। वार्यते केनचिन्नापि तत्तदानीं प्रदुष्यति ॥2॥ तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धात्प्रागूर्ध्वं चापि यत्स्मृतेः। विज्ञानं जायते सर्वं प्रत्यक्षमिति गम्यताम् ॥3॥ 16. अनेकदेशकालावस्थासमन्वितं सामान्यं द्रव्यादिकं च वस्त्वस्याः
अन्वय-व्यतिरेक होने से वह भी प्रत्यक्ष की कोटि में आता है, परोक्ष की नहीं।
प्रत्यभिज्ञान स्मरणपूर्वक होता है अतः परोक्ष है ऐसा भी नहीं कहना चाहिए क्योंकि यह ज्ञान सत् संप्रयोगज है। विद्यमान अर्थ का इन्द्रिय के साथ सन्निकर्ष होना सत् सम्प्रयोग कहलाता है उससे जो हो उसे सत् सम्प्रयोगज कहते हैं। अतः स्मरण के पश्चात् होने पर भी उसमें प्रत्यक्षता मानने में विरोध नहीं आता। कहा भी है
जो ज्ञान स्मरण के पहले हो वही प्रत्यक्ष प्रमाण हो ऐसा लौकिक या राजकीय नियम नहीं है।
स्मरण के पश्चात् इन्द्रियों के प्रवर्त्तन को किसी के द्वारा रोक दिया जाता हो ऐसी भी बात नहीं है और न उस समय वे दूषित ही होती हैं।॥2॥
इसलिये निश्चय होता है कि जो ज्ञान इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध से होता है वह सब प्रत्यक्ष प्रमाण है फिर चाहे वह स्मृति के प्राग्भावी हो चाहे पश्चात्भावी हो॥3॥
16. इस प्रत्यभिज्ञान रूप प्रत्यक्ष का विषय अनेक देशकाल 5. मी० श्लो० सू० 4 श्लो॰ 235-237.
82:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः