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वृक्षोयमित्यादि mon
23. ननु स एवायमित्यादि प्रत्यभिज्ञानम् नैक विज्ञानम्-'सः' इत्युल्लेखस्य स्मरणत्वात् 'अयम्' इत्युल्लेखस्य चाध्यक्षत्वात्। न चाभ्यां व्यतिरिक्तं ज्ञानमस्ति यत्प्रत्यभिज्ञानशब्दाभिधेयं स्यात्। नाप्यनयोरैक्यं प्रत्यक्षानुमानयोरपि तत्प्रसङ्गात्। स्पष्टेररूपतया तयोर्भेदेऽत्रापि सोऽस्तु;
24. तदसाम्प्रतमः स्मरणप्रत्यक्षजन्यस्य पर्वोक्तरविवर्तवत्यैकद्रव्य विषयस्य सङ्कलनज्ञानस्यैकस्य प्रत्यभिज्ञानत्वेन सुप्रतीतत्वात्। न खलु
वृक्षोयमित्यादि mon
सूत्रार्थ- जैसे वही देवदत्त यह है, गो सदृश रोझ (गवय नील गाय) होती है, गो से विलक्षण भैंस होती है, यह इससे दूर है, यह वृक्ष है इत्यादि क्रमशः एकत्व प्रत्यभिज्ञान, सादृश्य प्रत्यभिज्ञान, वैलक्षण्य प्रत्यभिज्ञान, प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञान और सामान्य प्रत्यभिज्ञान के उदाहरण समझने चाहिए।
23. यहाँ बौद्ध शंका करते हुए कहते हैं कि- "यह वही देवदत्त है" इत्यादि प्रत्यभिज्ञान एक ज्ञान रूप नहीं है। "वह" ऐसा उल्लेख तो स्मरण है और "यह" ऐसा उल्लेख प्रत्यक्ष ज्ञान रूप है, इन दोनों से अतिरिक्त अन्य ज्ञान नहीं है। जो प्रत्यभिज्ञान शब्द का अभिधेय हो, इस स्मृति और प्रत्यक्ष को एक रूप भी नहीं मान सकते हैं अन्यथा प्रत्यक्ष और अनुमान में भी एकत्व मानना होगा। प्रत्यक्ष स्पष्ट प्रतिभास वाला है और अनुमान अस्पष्ट प्रतिभास वाला है अतः इनमें भेद सिद्ध होता है ऐसा कहो तो यही बात स्मरण और प्रत्यक्ष में है। अर्थात् स्मरण अस्पष्ट प्रतिभास वाला और प्रत्यक्ष स्पष्ट प्रतिभास वाला होने से इनमें भेद ही है।
24. बौद्धों की इस शंका का समाधान करते हुये जैन कहते हैंयह कथन ठीक नहीं है क्योंकि जो स्मरण और प्रत्यक्ष से उत्पन्न होता है, पूर्वोत्तर पर्यायों में व्यापी एक द्रव्य जिसका विषय है ऐसा जोड़ रूप प्रत्यभिज्ञान भली भाँति प्रतीति में आता है। स्मरण ज्ञान अतीत और
86:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः