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प्ररूपितत्वात्। ‘तदित्याकारानुभूतार्थविषया हि प्रतीति: स्मृति:' इत्युच्यते ।
8. ननु चोक्तमनुभूते स्मृतिरित्येतन्न स्मृतिप्रत्यक्षाभ्यां प्रतीयते; तदप्यपेशलम्; मतिज्ञानापेक्षेणात्मना अनुभूयमानाऽनुभूतार्थविषयतायाः स्मृतिप्रत्यक्षाकारयोश्चानुभवसम्भवात् चित्राकारप्रतीतिवत् चित्रज्ञानेन। यथा चाशक्यविवेचनत्वाद् युगपच्चित्राकारतैकस्याविरुद्धा, तथा क्रमेणापि अवग्रहेहावायधारणास्मृत्यादिचित्रस्वभावता ।
9. न च प्रत्यक्षेणानुभूयमानतानुभवे तदैवार्थे ऽनुभूतताया अप्यनुभवोऽनुषज्यते ; स्मृतिविशेषणापेक्षत्वात्तत्र तत्प्रतीते: ; नीलाद्याकारविशेषणापेक्षया ज्ञाने चित्रप्रतिपत्तिवत् ।
जिसमें हो वह अनुभूत विषय वाली प्रतीति ही स्मृति कहलाती है । 8. शंका- "अनुभूत अर्थ में स्मृति होती है" ऐसा स्मृति और प्रत्यक्ष के द्वारा प्रतीत नहीं होता है।
समाधान- यह बात ठीक नहीं है। जिसमें मतिज्ञान की अपेक्षा है ऐसे आत्मा के द्वारा अनुभूय विषय और अनुभूतार्थ विषय का प्रत्यक्ष तथा स्मृति के आकार से अनुभव होना सम्भव है। जैसे- चित्रज्ञान के द्वारा चित्रकारों का प्रतिभास होना सम्भव है । जिस प्रकार आप बौद्ध के यहाँ अशक्य विवेचन होने से एक ज्ञान की एक साथ चित्राकारता होना अविरुद्ध है उसी प्रकार क्रम से भी अवग्रहज्ञान, ईहाज्ञान, अवायज्ञान, धारणाज्ञान, स्मृतिज्ञान इत्यादि विचित्र ज्ञानों का एक आत्मा में होना अविरुद्ध है।
9. कोई कहे कि प्रत्यक्ष के द्वारा अनुभूयमानता अनुभव में आने के साथ उसी वक्त पदार्थ में अनुभूतता का भी अनुभव हो जाना चाहिए, तब यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि उस अनुभूतता में स्मृति विशेषण की अपेक्षा होती है, उसे ही अनुभूतता की प्रतीति होती है, जैसे नीलादि आकाररूप विशेषण की अपेक्षा से ज्ञान में चित्र की प्रतिपत्ति होती है।
78 :: प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः