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एवं मनोषि द्वेधा द्रष्टव्यम्।
17. ततः “पृथिव्यव्यप्तेजोवायुभ्यो घ्राणरसनचक्षुः स्पर्शनेन्द्रियभावः " इति प्रत्याख्यातम्; पृथिव्यादीनामन्योन्यमेकान्तेन द्रव्यान्तरत्वासिद्धेः, अन्यथा जलादेर्मुक्ताफलादिपरिणामाभावप्रसक्तिरात्मादिवत् । न चैवम्, प्रत्यक्षादि
विरोधात्।
18. अर्थालोकयोस्तदसाधारणकारणत्वादत्राभिधानं तर्हि कर्त्तव्यम्; इत्यप्यसत्ः तयोर्ज्ञानकारणत्वस्यैवासिद्धेः । तदाह
में नहीं आते हैं। अर्थात् जब हमारा उपयोग अन्य किसी विषय में होता है तब हमें बिल्कुल निकट के शब्द रूप आदि का भी ज्ञान नहीं हो पाता है। इसी बात से उपयोग रूप भावेन्द्रिय सिद्ध होती है। इसी प्रकार मन के भी दो भेद हैं- द्रव्यमन, भावमन।
17. अतः पृथिवी से प्राण, जल से रसना, अग्नि से चक्षु और वायु से स्पर्शेन्द्रिय उत्पन्न होती है- ऐसा कहना गलत हो जाता है, क्योंकि पृथिवी आदि पदार्थ एकान्त से भिन्न द्रव्य नहीं हैं। यदि पृथिवी जल आदि सर्वथा भिन्न-भिन्न द्रव्य होते तो जल से पृथिवी स्वरूप मोती कैसे उत्पन्न होते, अर्थात् नहीं होते, जैसे आत्मा सर्वथा पृथक् द्रव्य है तो वह अन्य किसी पृथिवी आदि से उत्पन्न नहीं होता है। किन्तु जल सूर्यकान्त मणि से ( पृथिवी
से मोती, चन्द्रकान्त स्वरूप पृथिवी से जल, से) अग्नि उत्पन्न होती हुई देखी जाती है पदार्थों को पृथक् द्रव्य रूप मानना प्रत्यक्ष
अतः पृथिवी, जल आदि
विरुद्ध पड़ता है।
से 18. अब यहाँ कोई कहे कि पदार्थ और प्रकाश में तो प्रमाण के प्रति असाधारण कारणपना है? उनका प्रत्यक्ष के लक्षण में कथन होना चाहिये? अतः यह कथन गलत है, क्योंकि पदार्थ और प्रकाश ज्ञान के निकटतम कारण नहीं हो सकते।
आगे इसी विषय का विवेचन करने वाला सूत्र कहते हैंनाथऽऽलोकी कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत्॥6॥
प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः: 59