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तद्भाववत्तदभावेऽपि प्रवृत्तिविरोधात्। समर्थितं चास्य तदविषयत्वं प्रागिति। नाप्यनुमानाधिगम्यः, अत एव। ज्ञानविशेषणविमर्शः
'तन्नाज्ञानं प्रमाणमन्यत्रोपचारात्' इत्यभिप्रायवान् प्रमाणस्य ज्ञानविशेषणत्वं समर्थयमानः प्राह
हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ॥2॥
23. हितं सुखं तत्साधनं च, तद्विपरीतमहितम्, तयोः प्राप्तिपरिहारौ। प्राप्तिः खलूपादेयभूतार्थक्रियाप्रसाधकार्थप्रदर्शकत्वम्। अर्थक्रियार्थी हि ज्ञाता का व्यापार प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, अतः ज्ञाता का व्यापार होने पर तथा न होने पर भी प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति का विरोध ही है, प्रत्यक्ष का विषय ज्ञाता का व्यापार नहीं है- यह पहले कह चुके हैं। अनुमान से व्यतिरेक का निश्चय नहीं होता क्योंकि उसको भी (ज्ञाता का व्यापार हो अथवा न हो) प्रवृत्ति नहीं होती। ज्ञानविशेषण विमर्श
यह तो सिद्ध हो ही गया है कि वास्तव में अज्ञान रूप वस्तु प्रमाण नहीं होती। उपचार से अन्य सहायक सामग्री को भले ही प्रमाण कह दिया जाय किन्तु, वास्तव में ज्ञान ही प्रमाण है। प्रमाण के लक्षण में आचार्य माणिक्यनन्दि ने जो ज्ञान विशेषण दिया है उसके समर्थन में अगला सूत्र कहते हैंहिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्॥2॥
सूत्रार्थ- हित की प्राप्ति और अहित के परिहार कराने में प्रमाण समर्थ है, अतः वह प्रमाण ज्ञान ही है।
23. सुख और सुख के साधनों को हित कहते हैं, दुःख और दु:ख के साधनों को अहित कहते हैं। हित की प्राप्ति और अहित का परिहार प्रमाण के द्वारा होता है। उपादेयभूत जो क्रियायें हैं उन क्रियाओं के योग्य पदार्थों का ज्ञान कराना प्राप्ति कहलाता है। इसीलिए ऐसे प्रमाण
प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 25