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34. इत्याशङ्कयाऽतिप्रसङ्गापनोदार्थम् अपूर्वार्थविशेषणमाह । अतोऽनयोरनर्थविषयत्वाविशेषग्राहित्वाभ्यां व्यवच्छेदः सिद्धः । यद्वानेनाऽपूर्वार्थविशेषणेन धारावाहिविज्ञानमेव निरस्यते। विपर्ययज्ञानस्य तु व्यवसायात्मकत्वविशेषणेनैव निरस्तत्वात् संशयादिस्वभावसमारोपविरोधि ग्रहणत्वात्तस्य ।
अपूर्वार्थपदविमर्शः
35. तेनापूर्वार्थविशेषणेन धारावाहिविज्ञानं निरस्यते । नन्वेवमपि प्रमाणसम्प्लववादिताव्याघातः प्रमाणप्रतिपन्नेऽर्थे प्रमाणान्तराप्रतिपत्तिः । 34. इस प्रकार की शंका के समाधान के लिए तथा इस अतिप्रसङ्ग दोष को दूर करने के लिए ही आचार्य माणिक्यनन्दि ने प्रमाण के लक्षण में अपूर्वार्थ विशेषण दिया है। अपूर्वार्थ विशेषण से विपर्यय ज्ञान तथा धारावाहिक ज्ञान इन दोनों का निरसन हो जाता है, क्योंकि विपर्यय ज्ञान का विषय वास्तविक नहीं है और धारावाहिक ज्ञान का विषय अविशेष मात्र है। या अपूर्वार्थ विशेषण द्वारा धारावाहिक ज्ञान का प्रमाणपना खण्डित होता है और व्यवसायात्मक विशेषण द्वारा विपर्यय ज्ञान का प्रमाणपना निरस्त होता है, क्योंकि व्यवसायात्मक ज्ञान तो संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय से रहित ही वस्तु को ग्रहण करता है। अपूर्वार्ध पद विमर्श
35. मीमांसकों का कहना भी है कि आपने जो अपूर्वार्थ विशेषण के द्वारा धारावाहिक ज्ञान का निरसन किया है उससे आपके मान्य प्रमाणसम्प्लववाद का व्याघात होता है, क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाण के द्वारा जाने हुए विषय में दूसरे अनुमानादि प्रमाणों की प्रवृत्ति होना इसका नाम प्रमाणसम्प्लव है, प्रमाणसम्प्लव ग्रहण हुए पदार्थ को ही ग्रहण करता है, अपूर्वार्थ को नहीं, अतः इसका समाधान आप किस प्रकार करेंगे?
जैनाचार्य कहते हैं कि मीमांसकों का ऐसा कहना ठीक नहीं है। उसका कारण यह है कि जहाँ अर्थ परिच्छित्ति (पदार्थ के ज्ञान की) विशेषता होती है वहाँ उसी एक विषय में प्रवृत्त होने पर भी ज्ञान में हमने प्रमाणता मानी है इस बात को जरा गहराई से समझना होगा। प्रथम प्रमाण के द्वारा जाने गये पदार्थ को यदि विशेषाकार रूप से जानने के
प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार:: 33