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37. न केवलमप्रतिपन्न एवापूर्वार्थ, अपि तु दृष्टोऽपि प्रतिपन्नपि समारोपात् संशयादिसद्भावात् तादृगपूर्वार्थोऽधीतानभ्यस्तशास्त्रवत्। एवंविधार्थस्य यन्निश्चयात्मक विज्ञानं तत्सकलं प्रमाणम्।
38. तन्न अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वमेव प्रमाणस्य लक्षणम् । तद्धि वस्तु - न्यधिगतेऽधिगते वाऽव्यभिचारादिविशिष्टां प्रमां जनयन्नोपालम्भविषयः । 39. न चाधिगतेऽर्थे किं कुर्वत्तत्प्रमाणतां प्राप्नोतीति वक्तव्यम् ? विशिष्टप्रमां जनयतस्तस्य प्रमाणताप्रतिपादनात् यत्र तु सा नास्ति तन्न प्रमाणम्।
सूत्रार्थ दृष्ट अर्थ भी समारोप हो जाने के कारण अपूर्वार्थ कहलाता है (अर्थात् सिर्फ अदृष्ट ही अपूर्वार्ध नहीं है) ।
37. प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं कि केवल अप्रतिपन्न ही अपूर्वार्थ नहीं है बल्कि दृष्ट में भी, प्रतिपन्न में भी यदि संशयादि समारोप आ जाता है तो वह पदार्थ भी अपूर्वार्ध बन जाता है जैसे कि पढ़ा हुआ शास्त्र भी अनभ्यास से नहीं पढ़ा हुआ जैसा हो जाता है। इस प्रकार अपूर्वार्थ का निश्चय कराने वाले सभी ज्ञान प्रमाण कहे गये हैं।
38. इसलिए प्रभाकरभट्ट ने जो यह 'अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वमेव प्रमाणस्य लक्षणम्' कहा है वह ठीक नहीं है वस्तु चाहे जानी हुयी हो या नहीं जानी हुयी, ज्ञान यदि उसमें अव्यभिचार रूप से विशेष जानकारी उत्पन्न करता है तो वह ज्ञान प्रमाण ही माना जायेगा।
39. पुनः प्रश्न उठता है कि जाने हुये विषय में यह क्या प्रमाणता लायेगा ? यह शंका इसलिए उचित नहीं है क्योंकि उसमें विशिष्ट अंश का ग्रहण करके वह विशेषता लाता है, अतः उसमें प्रमाणपना आता है, हाँ; जहाँ ज्ञान के द्वारा कुछ भी विशेष रूप से जानना नहीं होता है वहाँ उसमें प्रमाणता नहीं होती है।
प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार 35