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49. उपयोगलक्षणं तु भावकरणं नाप्रत्यक्षम्; स्वार्थग्रहणव्यापारलक्षणस्यास्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षप्रसिद्धत्वात् 'घटादिद्वारेण घटादि ग्रहणे उपयुक्तोऽप्यहं घटं न पश्यामि पदार्थान्तरं तु पश्यामि' इत्युपयोगस्वरूपसंवेदनस्याखिलजनानां सुप्रसिद्धत्वात्।
शंका- मन और इन्द्रियाँ करण तो हैं, किन्तु वे सब अचेतन हैं। एक मुख्य चेतन स्वरूप करण होना चाहिए।
समाधान- ऐसा कहना उचित नहीं है। आप जैन दर्शन के अभिप्राय को पहले समझिये- भाव मन और भावेन्द्रियाँ तो चैतन्य स्वभाव वाली हैं, यदि आप उन भाव मन और भावेन्द्रियों को परोक्ष सिद्ध करना चाहते हो तो जैनदर्शन के लिए यह इष्ट है क्योंकि जैनदर्शन में स्वपर को जानने की शक्ति जिसकी होती है ऐसी लब्धि रूप भावेन्द्रिय को तथा भावमन को चेतन मानते हैं। यदि इनमें आप परोक्षता सिद्ध करते हैं तो हमें कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि जैनदर्शन में छद्मस्थों को (अपूर्ण ज्ञानियों को) इनका प्रत्यक्ष होता ही नहीं है।
49. जैनदर्शन के अनुसार लब्धिरूप करण और भावमन तो परोक्ष ही रहते हैं। यहाँ जो उपयोग लक्षण वाला भावकरण है वह तो स्व
और पर को ग्रहण करने के व्यापार रूप होता है अतः यह स्वयं को प्रत्यक्ष होता रहता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है- जब चक्षु आदि इन्द्रियों द्वारा घट आदि को ग्रहण करने की ओर जीव का उपयोग होता है अर्थात् व्यापार होता है तब वह कहता है कि मैं घट को तो देख नहीं रहा हूँ, अन्य पदार्थ को देख रहा हूँ-अर्थात् मैं हाथ से घट को उठा रहा हूँ किन्तु मेरा लक्ष्य अन्यत्र है-इस प्रकार उपयोग के स्वरूप को प्रतीति या (अनुभव) सभी जीवों को आया करती है।
इस प्रकार अनेक प्रकार से मीमांसकों की सभी शंकाओं का समाधान करते हुये यह सिद्ध करते हैं कि जो ज्ञान पर को जानता है वही ज्ञान स्वयं को भी जानता है।
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 41