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किञ्चित्सविकल्पकमिति मन्यमानं प्रति अशेषस्यापि प्रमाणस्याविशेषण विकल्पात्मकत्वविधानार्थं व्यवसायात्मकत्वविशेषणसमर्थनपरं तन्निश्चयात्मकमित्याद्याह। यत्प्राक्प्रबन्धेन समर्थितं ज्ञानरूपं प्रमाणम्
तन्निश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत्॥3॥
27. संशयविपर्यासानध्यवसायात्मको हि समारोपः, तद्विरुद्धत्वं वस्तुतथाभावग्राहकत्वं निश्चयात्मकत्वेनानुमाने व्याप्तं सुप्रसिद्धम् अन्यत्रापि ज्ञाने तद् दृश्यमानं निश्चयात्मकत्वं निश्चाययति, समारोपविरोधिग्रहणस्य निश्चयस्वरूपत्वात्। प्रमाणत्वाद्वा तत्तदात्मकमनुमानवदेव। परनिरपेक्षतया वस्तुतथाभावप्रकाशक हि प्रमाणम्। किन्तु आपको यह भी मानना चाहिए कि वह प्रमाण निर्विकल्पक और सविकल्पक दोनों तरह का होता है।
बौद्धों की इस बात पर आचार्य माणिक्यनन्दि तृतीय सूत्र की रचना करते हैं और यह कहते हैं कि प्रमाण विकल्पात्मक ही है। वे व्यवसायात्मक रूप प्रमाण का निश्चय कराते हुये कहते हैं
तन्निश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ॥3॥
सूत्रार्थ- वह प्रमाण निश्चयात्मक होता है, समारोप का विरोधी होने से, अनुमान की तरह।
जो पहले ज्ञान रूप से सिद्ध किया हुआ प्रमाण है वही प्रमाण, पदार्थ का निश्चयात्मक है, संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रूप समारोप का विरोधी होने से, जैसे कि अनुमान।
27. समारोप संशय, विपयर्य, अनध्यवसायात्मक होता है। इसके विपरीत वस्तु जैसी है वैसी ग्रहण करना निश्चायकपना कहलाता है। यह निश्चायकपना अनुमान में है। यह बात बौद्ध भी मानते हैं। अतः सभी प्रत्यक्षादि प्रमाणों में वह निश्चायकपना सिद्ध किया जाता है। समारोप के विरुद्ध रूप से ग्रहण करना यही तो निश्चायकत्व है। प्रमाणत्व हेतु के द्वारा भी उसका निश्चायकपना सिद्ध होगा। अनुमान की तरह अर्थात् प्रमाण व्यवसायात्मक होता है सम्यग्ज्ञान होने से, अविसंवादी होने से,
28:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः