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7. साधकतमत्वादिविवक्षायां तु प्रमीयते येन तत्प्रमाणं प्रमितिमात्रं वा - प्रतिबन्धापाये प्रादुर्भूतविज्ञानपर्यायस्य प्राधान्येनाश्रयणात् प्रदीपादेः प्रभाभारात्मकप्रकाशवत् ।
8. वक्ष्यमाणलक्षणलक्षितप्रमाणभेदमनभिप्रेत्यनन्तरसकलप्रमाणविशेषसाधारणप्रमाणलक्षणपुर: सर: 'प्रमाणाद्' इत्येकवचननिर्देशः कृतः । का हेतौ । अर्ध्यतेऽभिलष्यते प्रयोजनार्थिभिरित्यर्थी हेय उपादेयश्च उपेक्षणीयस्यापि परित्यजनीयत्वाद्धेयत्वम्; उपादान क्रियां प्रत्यकर्मभावान्नोपादेयत्वम्, हानक्रियां प्रति विपर्ययात्तत्वम् । तथा च लोको वदति 'अहमनेनोपेक्षणीयत्वेन परित्यक्त: " इति ।
जिसके द्वारा वह प्रमाण है अथवा जानना मात्र प्रमाण है। यह प्रमाण शब्द का अर्थ है। यहाँ मुख्य रूप से ज्ञानावरणादि कर्मों के अपाय अथवा क्षयोपशम से उत्पन्न ज्ञानपर्याय का आश्रय है जैसे दीपक की कान्तियुक्त शिखा ही प्रदीप है' यह कहा जाता है।
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यहाँ आचार्य सार रूप में यह समझाना चाहते हैं कि प्रमाण अर्थात् ज्ञान है और जो आत्मा है वही ज्ञान है अतः ज्ञान ही प्रमाण है।' 8. यहाँ पर भविष्य में कहे जाने वाले लक्षण से युक्त जो प्रमाण है उसके भेदों को न कहकर आचार्य माणिक्यनन्दि ने सभी प्रमाणों के विशेष तथा सामान्य लक्षण वाले ऐसे प्रमाण का प्रमाणात्' इस एक वचन से निर्देश किया है। यहाँ हेतु के अर्थ में पञ्चमी विभक्ति है। प्रयोजन वाले लोग जिसे चाहते हैं, उसे अर्थ कहते हैं। यह उपादेय तथा हेयरूप- इन दो प्रकारों का होता है। उपेक्षणीय का हेय में अन्तर्भाव किया है क्योंकि उपादान क्रिया के प्रति तो वह उपेक्षणीय पदार्थ कर्म नहीं होता है और हेय क्रिया का कर्म बन जाता है, अतः हेय में उपेक्षणीय गर्भित हो जाता है। व्यवहार में भी यह कहा जाता है कि इसके द्वारा मैं उपेक्षणीय होने से छोड़ा गया हूँ।
9. असत् पदार्थ का उत्पन्न होना या जिसकी इच्छा हो उस
प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार:: 7