________________
1/1
17. अतिशयेन लघवो हि लघीयांसः संक्षेपरुचय इत्यर्थः। कालशरीरपरिमाणकृतं तु लाघवं नेह गृह्यते तस्य व्युत्पाद्यत्वव्यभिचारात्, क्वचित्तथाविधे व्युत्पादकस्याऽप्युपलम्भात्। तस्मादभिप्रायकृतमिह लाघवं गृह्यते। येषां संक्षेपेण व्युत्पत्त्यभिप्रायो विनेयानां तान् प्रतीदमभिधीयते प्रतिपादकस्य प्रतिपाद्याशयवशवर्तित्वात्। 'अकथितम्' इत्यनेन कर्मसंज्ञायां सत्यां कर्मणी। प्रमाणलक्षणम्
18. प्रमाणविशेषलक्षणोपलक्षणाकाङ्क्षायास्तत्सामान्यलक्षणोपलक्षणपूर्वकत्वात् प्रमाणस्वरूपविप्रतिपत्तिनिराकरणद्वारेणाऽबाधतत्सामान्यलक्षणोपलक्षणायेदमभिधीयते
स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ॥1॥ संक्षेप वाले ग्रन्थ में आदर रखेगा क्या?
17. इस शंका के समाधान में आचार्य कहते हैं कि यहाँ 'लघीयसः' का अर्थ भी 'संक्षेप रुचि वाले' है। यहाँ काल और शरीर की लघुता से तात्पर्य नहीं है क्योंकि शिष्य चाहे ज्यादा उम्र वाले हों या कम उम्र वाले हों, शरीर से छोटे हों या बड़े हों-कम बुद्धि वाले हैं इसलिए समझाते हैं। अर्थात् जो शिष्य संक्षेप से व्युत्पत्ति करना चाहते हैं उन शिष्यों के लिए यह ग्रन्थ रचना का प्रयास है, प्रतिपादक तो प्रतिपाद्य के आशय के अनुसार ही कथन करते हैं। पाणिनि व्याकरण के 'अकथितं इस सूत्र से कर्म अर्थ में 'अल्पं सिद्धं लक्ष्म'-इन पदों में द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त हुयी है। प्रमाण का लक्षण
___18. सर्वप्रथम पूर्व में प्रमाण का सामान्य लक्षण बतलाया जाता है उसके बाद प्रमाण विशेष का लक्षण होता है, इसलिए प्रमाण के स्वरूप पर जो विवाद है उसका निराकरण करके अबाधित सामान्य लक्षण के लिए यह कह रहे हैं
स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्॥1॥
सूत्रार्थ- स्वयं के द्वारा जाना गया, पहले नहीं जाने गये अर्थ को 12:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः