________________
1/1
सन्निकर्षवादसमीक्षा
6. मा भूत् कारकसाकल्यस्यासिद्धस्वरूपत्वात् प्रामाण्यं सन्निकर्षादेस्तु सिद्धस्वरूपत्वात्प्रमित्युत्पत्तौ साधकतमत्वाच्च तत्स्यात्। सुप्रसिद्धो हि चक्षुषो घटेन संयोगो रूपादिना (संयुक्तसमवायः रूपत्वादिना) संयुक्तसमवेतसमवायो ज्ञानजनकः। साधकतमत्वं च प्रमाणत्वेन व्याप्तं न पुनर्ज्ञानत्वमज्ञानत्वं वा संशयादिवत्प्रमेयार्थवच्च,
7. इत्यसमीक्षिताभिधानम्। तस्य प्रमित्युत्पत्तौ साधकतमत्वाभावात्। यद्भावे हि प्रमितेर्भाववत्ता यदभावे चाभाववत्ता तत्तत्र साधकतमम्। "भावभावयोस्तद्वत्ता साधकतमत्वम्" इत्यभिधानात्। न चैतत्सन्निकर्षादौ सम्भवति। तद्भावेऽपि क्वचित्प्रमित्यनुत्पत्तेः; न हि चक्षुषो घटवदाकाशे सन्निकर्षवादसमीक्षा
6. वैशेषिक कहते हैं कि कारकसाकल्य को स्वरूप से असिद्ध होने से भले मत मानो पर सन्निकर्ष सिद्ध स्वरूप है अतः उसे प्रमाण मानना चाहिए क्योंकि प्रमिति की उत्पत्ति में वह साधकतम है। यह तो सुप्रसिद्ध है कि आँख का घट के साथ संयोग होता है, तथा रूप के साथ संयुक्तसमवाय होता है इसी तरह रूपत्व के साथ उसका संयुक्तसमेवतसमवायादि होता है, तभी जाकर उनके वे ज्ञानजनक ज्ञान को उत्पन्न करने वाले होते हैं- उनके ज्ञान को उत्पन्न करते हैं, साधकतम के साथ प्रमाण की व्याप्ति है, न कि ज्ञानत्व और अज्ञानत्व के साथ। जैसे कि संशयादिक अथवा प्रमेय आदि के साथ प्रमाण की व्याप्ति नहीं है, उसी प्रकार ज्ञानत्व और अज्ञानत्व के साथ भी उसकी व्याप्ति नहीं है।
7. जैन कहते हैं यह असमीक्षित कथन है क्योंकि सन्निकर्ष प्रमिति की उत्पत्ति के लिये साधकतम नहीं है। जिसके सद्भाव में प्रमिति क्रिया होती है और अभाव में नहीं होती वह ही वहाँ साधकतम है। 'भावभावयोस्तद्वत्ता साधकतमत्वम्'- ऐसा कहा गया है। यहाँ इस प्रकार का साधकतमपना सन्निकर्ष में नहीं है क्योंकि सन्निकर्ष होने पर भी आकाश आदि के विषय में प्रमिति नहीं होती है, जिस प्रकार
आँख का घट से संयोग है वैसे ही आकाश के साथ भी उसका संयोग 16:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः