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9. प्रतिबन्धापायरूपयोग्यतोपगमे तु सर्वं सुस्थम्, यस्य यत्र यथाविधो हि प्रतिबन्धापायस्तस्य तत्र तथाविधार्थपरिच्छित्तिरुत्पद्यते।
____10. न च योग्यताया एवार्थपरिच्छित्तौ साधकतमत्वतः प्रमाणत्वानुषङ्गात् 'ज्ञानं प्रमाणम्' इत्यस्य विरोधः, अस्याः स्वार्थ ग्रहणशक्तिलक्षणभावेन्द्रियस्वभावायाः यदसन्निधाने कारकान्तरसन्निधानेऽपि यन्नोत्पद्यते तत्तत्करणकम्, यथा कुठारा सन्निधाने कुठार (काष्ठ) च्छेदनमनुत्पद्यमानं कुठारकरणकम्, नोत्पद्यते च भावेन्द्रियासन्निधाने स्वार्थसंवेदनं सन्निकर्षादिसद्भावेऽपीति तद्भावेन्द्रियकरणकम्' इत्यनुमानतः प्रसिद्धस्वभावायाः स्वार्थावभासिज्ञानलक्षणप्रमाणसामग्रीत्वतः तदुत्पत्तावेव साधकतमत्वोपपत्तेः। ततोऽन्यनिरपेक्षतया स्वार्थपरिच्छित्तौ साधकतमत्वाज्ज्ञानमेव प्रमाणम्। (ii) 'प्रतिपत्ता' ही योग्यता है
9. यदि ऐसा मानते हैं तो वह हमें स्वीकार है क्यों कि जहाँ जिसके जैसा प्रतिबन्धक का अभाव (ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय या क्षयोपशय) हो जाता है वहाँ उसके वैसी ही प्रमिति उत्पन्न हो जाती है।
10. शंका-यदि अर्थ के जानने में योग्यता ही साधकतम है, तब फिर वही प्रमाण हो गयी, ज्ञान प्रमाण है यह बात गलत हो जायेगी?
समाधान- यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि स्व-परज्ञान की शक्ति रूप भावेन्द्रिय स्वभाव वाली जो योग्यता है वह ज्ञान रूप ही है। पहले समझें कि करण किसको कहते हैं? जिसके न होने पर और कारकान्तर की उपस्थिति पर भी जो उत्पन्न नहीं होता वह उसके प्रति करण माना जाता है, जैसे कुठार के न होने पर काठ का छेदन नहीं होता इसलिए कुठार को काठ छेदन के प्रतिकरण माना जाता है। उसी प्रकार सन्निकर्षादि के मौजूद रहने पर भी यदि भावेन्द्रिय नहीं है तो स्व-पर का ज्ञान नहीं होता है अतः भावेन्द्रिय को ही कारण माना जाता है। इस प्रकार स्व-पर का जानना है लक्षण जिसका ऐसे प्रसिद्ध स्वभाव वाली योग्यता से प्रमिति उत्पन्न होती है अतः वही उसके प्रति साधकतम है, स्व-पर को जानने में किसी दूसरे की अपेक्षा न करके आप (स्वयं) अकेला ही ज्ञान साधकतम है, अतः वही प्रमाण है। 18:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः