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4. तत्रास्य प्रकरणस्य प्रमाणतदाभासयोर्लक्षणमभिधेयम्। अनेन च सहास्य प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावलक्षणः सम्बन्धः । शक्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनं तु साक्षात्तल्लक्षणव्युत्पत्तिरेव ' इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म' प्रमाणादर्थसिद्धिः ' इत्यादिकं तु परम्परयेति समुदायार्थः । अथेदानीं व्युत्पत्तिद्वारेणाऽवयवार्थोऽभिधीयते ।
परीक्षा करने वाले वचन के समान ही वह आदर योग्य नहीं होता है। अनिष्टप्रयोजन वाले वाक्य तो माता को विवाहोपदेश के समान ही अयोग्य होते हैं। यदि वचन अशक्यानुष्ठान रूप हैं तो 'नागफण में स्थित मणि सभी ज्वर रोगों को दूर कर देता है'- वचन के समान वह विद्वानों में आदर के योग्य इसलिए नहीं रहता, क्योंकि न मणियुक्त नागफण मिलेगा और मिले भी तो कोई ला नहीं सकता।
जगत् में उन्हीं शास्त्रों का आदर होता है जो सम्बन्धाभिधेय, शक्यानुष्ठान और इष्ट प्रयोजन से सहित होते हैं। जिसका अर्थ प्रमाण से सिद्ध हो ऐसे सम्बन्ध वाले वाक्य में ही बुद्धिमान लोग प्रवृत्त होते हैं। इसलिए सम्बन्ध को शास्त्र के शुरू में ही बतलाना चाहिए । फिर उस शास्त्र का प्रयोजन भी कहना चाहिए, नहीं तो उसे कोई ग्रहण नहीं करेगा। शास्त्र में कही गयी बातें ऐसी न हों कि कोई उसे करना चाहे तो कर ही न सके अतः शक्यानुष्ठान होना चाहिए ।
4. अतः इन सम्बन्धाभिधेय, शक्यानुष्ठान और इष्टप्रयोजन में इस प्रकरण अर्थात् परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थ का प्रमाण और प्रमाणाभास का लक्षण कहना यही अभिधेय है, इसका इसके साथ प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव वाला सम्बन्ध है। इसमें शक्यानुष्ठान और इष्ट प्रयोजन तो यही है कि प्रमाण और तदाभास के जानने में प्रवीणता प्राप्त होना इस बात को 'वक्ष्ये' कहूँगा इस पद के द्वारा प्रकट किया है। इसका साक्षात् फल अज्ञान की निवृत्ति होना है, प्रमाण से अर्थ की सिद्धि होती है इन पदों से तो इस ग्रन्थ का परम्परा फल दिखलाया गया है। यह इस प्रथम श्लोक का समुदाय अर्थ हुआ, अब श्लोक के प्रत्येक पद का अवयव रूप से उनकी व्याकरण से व्युत्पत्ति दिखलाते हैं।
प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः: 5