________________
महाकवि वाक्पतिराज (आठवीं शताब्दी) ने प्राकृत भाषा को जनभाषा माना है और इससे ही समस्त भाषाओं का विकास स्वीकार किया है। गउडवहो में वाक्पतिराज ने कहा भी है
सयलाओ इमं वाआ विसन्ति एत्तो य णेंति वायाओ। एन्ति समुद्दं चिय णेंति सायराओ च्चिय जलाई ॥ ९३ ॥
अर्थात् 'सभी भाषाएं इसी प्राकृत से निकलती हैं और इसी को प्राप्त होती हैं। जैसे सभी नदियों का जल समुद्र में ही प्रवेश करता है और समुद्र से ही (वाष्प रूप में) बाहर निकलकर नदियों के रूप में परिणत हो जाता है।' तात्पर्य यह है कि प्राकृत भाषा की उत्पत्ति अन्य किसी भाषा से नहीं हुई है, अपितु सभी भाषायें इसी प्राकृत से ही उत्पन्न हैं।
हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की मान्यता है कि 'प्राकृत' नाम से जो भाषा आज जानी जाती है, वह साहित्यिक भाषा है, किन्तु एक मूल प्राकृत भाषा भी थी, जो संस्कृत से भी प्राचीन है। यह मूल प्राकृत जनभाषा थी और इसी ने साहित्यिक प्राकृत को जन्म दिया तथा यही भाषा बाद में अपभ्रंश कहलाई ।
प्राकृत का लोकभाषा / जनभाषा
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा ने साहित्य में जो परिनिष्ठित स्वरूप 'संस्कृत' से नाम प्राप्त किया, उसमें शब्दानुशासन की अनेक दुर्बोध जटिलतायें उत्पन्न हो गई थीं । फलतः जब लोकभाषा के रूप में प्राचीन काल से ही पूर्व प्रचलित प्राकृत भाषा ने साहित्य-रचना का दायित्व सम्भाला, तब उसके परिनिष्ठित स्वरूप में संस्कृत की व्याकरणिक जटिलताएं यथा-सम्भव समाप्त करने की गईं। अतः प्राकृत भाषायें आरम्भ से ही सहज, सरल, सरस, सुबोध एवं माधुर्य से ओतप्रोत रही हैं। इसलिए ये इतनी व्यापकता के साथ जनमानस में आकर्षण उत्पन्न कर
सकीं।
Jain Education International
-
४
Brave
• स्वरूप
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org