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आगम ग्रन्थ तथा आचार्य कुन्दकुन्द, वट्टकेर, शिवार्य, यतिवृषभ, पुष्पदन्तभूतबलि, नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, कार्तिकेय, वसुनन्दि आदि अनेक आचार्यो के ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में ही लिखे गये हैं।
__ कुछ प्राचीन जैन ग्रन्थों की शौरसेनी भाषा में कतिपय विशिष्टताएं पायी जाती हैं, जिससे कुछ विद्वानों की दृष्टि से इसे 'जैन शौरसेनी' भी कहा जाता है। किन्तु मात्र कुछ विशेषताओं के कारण यह अलग नामकरण उपयुक्त नहीं है। अतः मूलतः यह भी शौरसेनी ही है। क) नाटकों की शौरसेनी
आचार्य भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र (१७.४६, ५१) में कहा है कि नाटकों की बोलचाल की भाषा में शौरसेनी का आश्रय लेना चाहिये तथा महिलाओं और उनकी सखियों, दासियों, सामान्यतः कुलीन स्त्रियों और मध्यम वर्ग के पुरुषों को इस भाषा में वार्तालाप करना चाहिये। तदनुसार अश्वघोष, भास, शूद्रक, कालिदास, विशाखदत्त में प्राकृत का गद्यभाग सामान्यतया शौरसेनी में लिखा गया है। अश्वघोष द्वारा प्रयुक्त शौरसेनी उत्तरकालीन संस्कृत नाटकों की शौरसेनी का प्राचीनतम रूप है, जो पालि और अशोक के शिलालेखों की प्राकृत के अनुरूप है।
अश्वघोष के नाटकों की शौरसेनी और अन्य प्राकृतें उत्तरकालीन क्लासिकल संस्कृत नाटकों की शौरसेनी की अपेक्षा, संस्कृत के अधिक निकट पाई गई हैं, इससे विद्वानों की मान्यता है कि नाटकों में शौरसेनी तथा अन्य प्राकृतों का प्रयोग तब आरम्भ किया गया जबकि अधिकतर प्राकृत बोलने वाले संस्कृत समझ सकते थे। वररुचि ने प्राकृतप्रकाश (१२.२) में संस्कृत को शौरसेनी का आधारभूत स्वीकार किया है। क्लासिकल संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त शौरसेनी विभक्ति-बहुल होने पर भी वह संस्कृत की अपेक्षा काफी सहजगम्य थी और उसे अपभ्रश, जो शनैः शनैः विकसित हो रही थी, को बोलने वाले आसानी से समझ सकते थे। (प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. ३१)
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