Book Title: Prakrit Bhasha Vimarsh
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 114
________________ आधुनिक हिन्दी भाषा और शौरसेनी अपभ्रंश के मध्य की अवस्था कभी-कभी 'अवहट्ठ' कही गई है। कुछ विद्वानों ने इसे पुरानी हिन्दी नाम भी दिया है। यद्यपि इसका ठीक-ठीक निर्णय करना कठिन है कि अपभ्रंश का कब अन्त होता है और पुरानी हिन्दी का कहीं से आरम्भ होता है, तथापि बारहवीं शताब्दी का मध्य भाग अपभ्रंश के अस्त और आधुनिक भाषाओं के उदय का काल यथाकथंचित् माना जा सकता है । ( हिन्दी भाषा का संक्षिप्त इतिहास, पृ. ६) पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ( पुरानी हिन्दी - भूमिका, पृ. ९) ने विक्रम की सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक की भाषा को अपभ्रंश और इसके बाद की भाषा को पुरानी हिन्दी कहा है। इनके अनुसार इतने काल तक अपभ्रंश की प्रधानता रही, फिर वह पुरानी हिन्दी में परिणत हो गई। उन्होंने पुरानी हिन्दी वाले भाषा-स्वरूप में देशी शब्दों की प्रधानता देखी है, विभक्तियों को घिसी हुई देखा है, कारकों में किसी एक कारक का, अन्य कारकों के रूपों तक विस्तार पाया है। अविभक्तिक पद विकसित होते हैं । विभक्तियों के घिस जाने के कारण कई अव्यय या पद लुप्तविभक्तिक पद के आगे विभक्त्यर्थ प्रयुक्त होने लगे हैं क्रियापदों का भी सरलीकरण हुआ है। I इनके अनुसार अपभ्रंश ने न केवल प्राकृत ही के तद्भव और तत्सम पद लिए, अपितु धनवती अपुत्रा मौसी (संस्कृत) से भी कई तत्सम पद लिए। (गुलेरी रचनावली, पृ. २४) इस प्रकार पुरानी हिन्दी अथवा परवर्ती अपभ्रंश में प्राकृत के तत्सम और तद्भव शब्दों के अतिरिक्त संस्कृत के तत्सम पद गृहीत हुए हैं। संस्कृत के ऐसे पद उन्हीं स्थलों पर आते हैं, जहां प्राकृत में तद्भव प्रयोग अधिक घिस गये हैं। गुलेरी जी की मान्यता में शौरसेनी प्राकृत और भूतभाषा (पैशाची प्राकृत) की भूमि ही अपभ्रंश की भूमि हुई और वही पुरानी हिन्दी की भूमि है। वे प्राकृत, अपभ्रंश तथा पुरानी हिन्दी की देश- व्यापकता में १०१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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