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ञ) हिन्दी का प्राचीन स्वरूप है : अपभ्रंश
हिन्दी भाषा, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का ही विकसित स्वरूप है। इसीलिए ये हिन्दी की जननी मानी जाती हैं। अपनी इन जननी स्वरूप भाषाओं के तत्त्वों को हिन्दी ने आत्मसात किया । यही कारण है कि प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत में इसके तत्त्व आसानी से खोजे जा सकते हैं । किन्तु हिन्दी भाषा के विकास में अपभ्रंश के सीधे योगदान का इसलिए अधिक महत्त्व दिया जाता है, चूंकि हिन्दी अपभ्रंश के तत्काल बाद की इसी से विकसित भाषा है।
शब्द एवं धातु रूपों में नये-नये प्रयोग कर अपभ्रंश ने हिन्दी तथा आधुनिक आर्य भाषाओं के विकास की आधारभूमि उपस्थित र दी है। अपभ्रंश का साहित्यिक क्षेत्र मध्यदेश है। जो कि हिन्दी का जन्म स्थान है। यह हिन्दी के विकास की पूर्व पीठिका है। इसलिए सुप्रसिद्ध पंडित राहुल सांकृत्यायन अपभ्रंश को हिन्दी का प्राचीन रूप मानते हैं ।
अपभ्रंश में दो प्रकार की रचनाएँ प्राप्त हुई हैं। विशुद्ध अपभ्रंश के रूप में और लोकप्रचलित देशी भाषा में । यह देशी भाषा ही अपभ्रंश का लोक प्रचलित रूप था, पर हिन्दी के प्राचीन रूप में और देशी भाषा में कठिनाई से अन्तर किया जा सकता है। अतः लोक प्रचलित अपभ्रंश (देशी भाषा) में रचना करने वाले विद्वानों की रचनाओं को प्राचीन हिन्दी स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए। (हिन्दी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, डॉ. कृष्णलाल हंस, पृ. १८)
किन्तु बाद में प्राकृत की भांति अपभ्रंश भाषा भी व्याकरण के नियमों आबद्ध होकर केवल साहित्य में व्यवहृत होने लगी । फिर भी उसका स्वाभाविक प्रवाह चलता रहा। क्रमशः वह भाषा एक ऐसी अवस्था में पहुंची, जो कुछ अंशों में तो हमारी आधुनिक भाषाओं से मिलता है और कुछ अंशों में अपभ्रंश से ।
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